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________________ जैन-जैनेतर धर्म-दर्शनों में अहिंसा : ४९ हैं, वह व्यर्थ नहीं बल्कि धर्म है, उनका यह कथन असत्य है, क्योंकि ऐसे धर्म की कोई प्रशंसा नहीं करता। सुरा, आसव, मधु, मांस और मछली तथा तिल और चावल की खिचड़ी, इन सब वस्तुओं को धूर्तों ने यज्ञ में प्रचलित किया है। वेदों में इनके उपयोग का विधान नहीं है। यदि समीक्षात्मक दृष्टि से देखें तो यहाँ थोड़ा विरोधाभास नजर आता है, क्योंकि राजा विचक्षणु ने कहा है कि मनु ने पशुबलि का विधान नहीं किया है, जबकि 'मनुस्मृति' में यज्ञ के लिए पशुबलि की छूट दी गई है। परन्तु ज्यादातर स्थलों पर अहिंसा का समर्थन किया गया है। यदि यह कहा जाए कि महाभारत काल में अहिंसा का जितना अधिक विकास देखा जाता है उतना शायद ही किसी वैदिक साहित्य में देखने को मिलता हो, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 'अनुशासनपर्व' में कहा गया है कि अहिंसा ही परम धर्म है, परम तप है, परम सत्य है और अन्य धर्मों की उद्गम स्थली है। यह परम संयम है, परम दान है, परम मित्र है तथा परम सुख है। अहिंसा सभी धर्मशास्त्रों में परम पद पर सुशोभित हैं, देवताओं और अतिथियों की सेवा, सतत धर्मशीलता, वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान, गुरु और आचार्य की सेवा तथा तीर्थयात्रा ये सब अहिंसा धर्म की सोलहवीं कला के बराबर है। 'गीता' में अहिंसा की अवधारणा कर्ममार्ग की व्याख्या के क्रम में पाते हैं। वस्तुत: यहाँ अहिंसा को एक प्रकार के तप या मुक्ति पाने के साधन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि जिस पुरुष के अन्त:करण में मैं कर्ता हूँ ऐसा भाव नहीं है जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में अथवा सम्पूर्ण कर्मों में लिप्त नहीं होती वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न ही पाप में बँधता है। पुराणों में अहिंसा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। 'मत्स्यपुराण' में कहा गया है कि जितना पुण्य चार वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से अर्जित होता है उससे भी कहीं अधिक पुण्य अहिंसा व्रत के पालन से होती है। इस तरह के अहिंसात्मक कथन 'वायुपुराण' १९, 'अग्निपुराण'२०, ‘ब्रह्मपुराण'२१, ‘भागवतपुराण'२२ आदि में दृष्टिगोचर होते हैं। बौद्ध धर्म-दर्शन में अहिंसा बौद्ध धर्म-दर्शन का प्रारम्भ ही आचारमीमांसा से होता है। इसके पंचशील सिद्धांत का आधार अहिंसा ही है। सभी प्राणियों में एकात्मकता का भाव तथा “आत्मवत सर्वभूतेषु' की भावना उनके बौद्ध धर्म-दर्शन का मूल मंत्र है। बौद्धों के अनुसार हिंसा एक प्रकार का अनार्य कर्म है और अहिंसा आर्य। अहिंसा मात्र हिंसा से विरक्त रहने में नहीं है, बल्कि किसी भी प्राणी को हिंसा की ओर नहीं घसीटना तथा हिंसा का समर्थन
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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