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________________ जैन - जैनेतर धर्म-दर्शनों में अहिंसा जैन धर्म में इन दोनों पक्षों पर समान रूप से बल दिया गया है। अहिंसा को परिभाषित करते हुए 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है - सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सत्त्वों को न स्वयं मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति द्वारा मरवाना चाहिए, न बलात् पकड़ना चाहिए, न परिताप देना चाहिए, न उस पर प्राणघातक उपद्रव करवाना चाहिए, यह अहिंसा धर्म ही शुद्ध है।' इसी प्रकार 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है कि ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है। बस, इतनी बात ध्यान में रखनी चाहिए ।" अहिंसा की ये परिभाषायें अपने आप में पूर्ण नहीं कही जा सकती हैं। अहिंसा की एक परिभाषा 'आवश्यकसूत्र' में मिलती है जो अहिंसा की पूर्ण परिभाषा कहलाने की योग्यता रखती है। कहा गया है- किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा नहीं करनी चाहिए, यही अहिंसा है। मन, वचन और कर्म तीन योग कहलाते हैं तथा करना, करवाना और अनुमोदन करना तीन करण कहलाते हैं। इस प्रकार नौ प्रकारों से हिंसा न करना ही अहिंसा है। जैन दृष्टि में यही वास्तविक अहिंसा है। : ४७ - अहिंसा के दो रूप हैं भाव अहिंसा और द्रव्य अहिंसा । कोई व्यक्ति यह संकल्प करता है कि मैं किसी भी प्राणी का घात नहीं करूँगा, यह भाव अहिंसा है। इसी प्रकार वास्तविक जीवन में भी किसी प्राणी की हिंसा न करना, न करवाना और न करने वाले का अनुमोदन ही करना द्रव्य अहिंसा है | अहिंसा को इस विभाजन के अतिरिक्त प्रवृत्ति और निवृत्ति के रूप में भी विभाजित किया गया है। जो विधेयात्मक और निषेधात्मक का ही रूपान्तरण है। अहिंसा के ये दोनों ही पक्ष एक साथ होते हैं। एक कार्य से जहाँ निवृत्ति होती है, वहीं दूसरे कार्य में प्रवृत्ति होती है। न तो केवल निवृत्ति की प्रधानता देखी जाती है और न केवल प्रवृत्ति की। यदि कोई व्यक्ति घुड़सवारी के लिए घोड़े की पीठ पर चढ़ता है तो वह चलने के लिए चढ़ता है, न कि घोड़े की पीठ पर जम जाने के लिए। वह घोड़े पर चढ़ता है और उसे गति भी देता है, किन्तु साथ ही घोड़े की लगाम भी पकड़े रहता है ताकि उसे जहाँ तक चलना है वहीं तक चले और जहाँ खड़ा होना है वहाँ खड़ा हो जाए। इस प्रकार घोड़े पर चढ़कर चलना प्रवृत्ति है और जरूरत पड़ने पर खड़ा हो जाना निवृत्ति है। तात्पर्य है जीवन की गति न तो उन्मुक्त, मर्यादाहीन और उच्छृंखल होनी चाहिए और न सर्वथा निष्क्रिय ही। इस तरह हम देखते हैं कि प्रवृत्ति और निवृत्ति, विधि और निषेध, भाव और अभाव दोनों अहिंसा में समाहित हैं। दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एकदूसरे के अभाव में अहिंसा अपूर्ण है। जैन परम्परा में दया, दान आदि को भी अहिंसा के अन्तर्गत रखा गया है। दया के लिए अनुकम्पा, करुणा आदि शब्द भी व्यवहत होते हैं। दान का अर्थ
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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