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________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७ परिव्राजक ___ 'परिसमन्तात् पापवर्जनेन व्रजति-गच्छीति, स परिव्राजकः।' अर्थात् जो पूर्णरूप से पाप का वर्जन करता है, गमन करता है, वह परिव्राजक है। सामान्य रूप से परिव्राजक का शाब्दिक अर्थ होता है- सबकुछ त्यागकर परिभ्रमण करने वाला। परिव्राजक संसार से विरक्त तथा सामाजिक नियमों से अलग रहते हुए अपना ध्यान शास्त्र-चिन्तन, शिक्षण आदि में लगाते थे। वृक्षों के नीचे सोते थे और भिक्षा में प्राप्त भोजन करते थे। 'परिव्राजक का सर्वप्रथम उल्लेख 'आचारचूला' में मिलता है। तत्पश्चात् 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक में गौतम द्वारा असंयत भव्यद्रव्यदेव आदि के देवलोक में उत्पाद के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तर में चरक परिव्राजक के रूप में मिलता है। 'व्याख्याप्रज्ञप्ति में जो १४ प्रकार के आराधक-विराधक परिव्राजकों के उल्लेख मिलते हैं उनके स्वरूप इस प्रकार हैं १. असंयत भव्यद्रव्यदेव'- जो साधु सामाचारी और साध्वाचार का पालन करता हो, किन्तु उसमें आन्तरिक साधूता न हो, केवल द्रव्यलिंगधारी हो, ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि वाला जीव असंयत भव्यद्रव्यदेव है। २. अविराथित संयमी - दीक्षापर्यन्त जिसका चारित्र भंग न हुआ हो, वह अविराधित संयमी है। ३. विराधित संयमी - जिसने महाव्रतों को ग्रहण करके भलीभांति पालन नहीं किया है, वह विराधित संयमी है। ४. अविराधित संयमा-संयमी - जिसने देशविरति ग्रहण करके अन्त तक निर्बाध रूप से पालन किया है वह अविराधित संयमा-संयमी है। ५. विराधित संयमा-संयमी - जिसने देशविरति ग्रहण करके भली प्रकार से पालन किया है वह अविराधित संयमा-संयमी है। ६. असंज्ञी जीव - जिसके मनोपलब्धि नहीं है। ७. तापस - वृक्ष से गिरे हुए पत्तों को खाकर जीवन निर्वाह करनेवाला बाल तपस्वी तापस है। ८. कान्दर्पिक - हँसोड़ तथा काम सम्बन्धी वार्तालाप करने वाला साधु कान्दर्पिक है। ९. चरक - गेरुए या भगवे रंग का वस्त्र पहनकर घाटी अर्थात् सामूहिक भिक्षा द्वारा आजीविका चलाने वाले त्रिदण्डी, कुच्छोटक आदि साधु इसके अन्तर्गत आते हैं।
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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