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१६० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७
उन तपों का भी उल्लेख किया गया है, जो हिन्दू परम्परा से प्रभावित लगते हैं, इसके अतिरिक्त राजा, मन्त्री, सेनापति के पद को ग्रहण करने की विधि का भी वर्णन किया गया है।
साध्वी मोक्षरत्ना जी ने 'आचार दिनकर' नामक इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करके श्लाघनीय कार्य किया है। इस कार्य से साध्वी मोक्षरत्ना जी की विद्वता सहज ही प्रखर हो सामने आती हैं। जिस सफलता से उन्होंने इस विशालकाय ग्रन्थ के चारों खण्डों का मात्र तीन वर्षों में हिन्दी अनुवाद किया है इसके लिए वे बधाई की पात्र हैं।
डॉ० शारदा सिंह
३. श्राद्धविधिप्रकरणम् (विधिकौमुदीवृत्ति का भाषान्तर), लेखक - रत्नशेखर सूरीश्वर जी, सम्पा० - मुनिराज श्री जयानंदविजय जी, प्रका० श्री गुरु रामचन्द्र प्रकाशन समिति, भीनमाल (राज०), प्रथम संस्कारण २००४, मूल्य - स्वाध्याय, पृष्ठ - ३८८, साईज - डिमाई ।
प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखन पूज्यपाद श्री रत्नशेखरसूरीश्वरजी द्वारा आज से करीब ५५८ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १५०६ में किया गया।
भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा जिस पर समस्त जैन संघ आधारित है, को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिये हमारे ऋषि-मुनियों ने हमेशा नये-नये साहित्य की रचना कर समाज को दिशा निर्देशित किया है। फिर चाहे वो श्रमण जीवन सम्बन्धित विधि-विधान हो या श्रावक जीवन सम्बन्धी । श्रमण जीवन पर अभी तक अनेकों प्रामाणिक ग्रन्थों की रचना हो चुकी है, किन्तु श्रावक जीवन को समुज्ज्वल बनाने वाले विधि-विधानों का दृष्टांतपूर्वक विवेचन किसी भी ग्रन्थ में नहीं किया गया है। इस दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ की महत्ता और बढ़ जाती है, क्योंकि इसमें उस समय के प्रचलित विधि-विधानों का विवेचन किया गया है। इतना ही नहीं तब से अब तक के विधि विधानों में कितने योग्य और अयोग्य विधि-विधान जुड़ गये हैं उसका विवरण भी इस ग्रन्थ द्वारा स्पष्ट हो जाता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ ६ प्रकाशों में विभक्त है। प्रथम प्रकाश के अन्तर्गत श्रावकों के भेद, धर्म, जप, स्वप्न- विचार, पच्चक्खाण की विधि, लाभ, फल, अर्थोपार्जन की विधि, अर्थ का व्यय, देवद्रव्यादि दैनिक कर्मों का विवरण अनेक कथाओं के माध्यम से दिया गया है। द्वितीय प्रकाश में रात्रिकृत्य के अन्तर्गत सोने से पूर्व स्वाध्याय एवं धर्मोपदेश, प्रतिक्रमण का समय तथा सोने की विधि आदि का विचार किया गया है। तृतीय प्रकाश के अन्तर्गत पूर्वकृत्य, चतुर्थ प्रकाश के अन्तर्गत चातुर्मासिकृत्य,