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________________ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७ उनके ग्यारह प्रमुख शिष्य ( गणधर ) थे। वे सभी उच्च ब्राह्मण वर्ग के थे । राजकुल से सम्बन्धित होने के कारण उनके आरम्भिक अनुयायियों में अनेक राजकुलों के सदस्य भी थे। बाद में उनके उपदेशों की हितकर्ता के आधार पर सभी जाति व वर्गों के लोग उनके अनुयायी बने। उन्होंने अपने अनुयायियों को चार कोटियों में संघबद्ध कर अनुशासित किया। ग्रंथों से पता चलता है कि उन्होंने सभी वर्ग के प्राणियों को समवसरण नामक धर्मसभाओं में तीस वर्ष तक तत्कालीन जनभाषा अर्धमागधी में सन्मार्ग का उपदेश दिया। उनकी धर्म सभायें वैशाली, चम्पा, श्रावस्ती, कौशाम्बी, हस्तिशीर्ष, हेमांगद (कर्नाटक), सूक्षक (दक्षिण), कलिंग (उड़ीसा), बंगाल, मत्स्य (राजस्थान), उज्जैन (मध्यप्रदेश), दशार्ण ( म०प्र०), पंचाल, सुम्ह (बंगाल), पोतनपुर (काशी) तथा श्वेताम्बिका (केकयार्ध), हस्तिनापुर, वर्धमानपुर (बंगाल), प्रयाग, अयोध्या, वाराणसी, काकंदी, संधु - सौबीर आदि क्षेत्रों में हुईं। 'हरिवंशपुराण' तो इन्हें तक्षशिला और अफगानिस्तान में भी मानता है। उनके उपदेश सामान्य और साधुजन- दोनों के लिये थे। उनके उपदेशों का सार निम्न है - १. अनेकांत, अपरिग्रह और अहिंसा की त्रिपुटी का त्रिकोटिक एवं स्तरानुसार पालन । २. संसार और उसके घटकों में उत्पाद और विनाश के साथ ध्रौव्य की त्रिपदी । ३. सभी आत्मायें समान क्षमता वाली हैं । ४. प्राणी स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। ५. सम्यक्-श्रद्धा, ज्ञान और सदाचार का पालन सुख का मार्ग है। ६. धर्म केवल व्यक्तिगत ही नहीं है, समाज, राष्ट्र और विश्वगत भी है। उनके निर्वाण के समय उनके अनुयायियों की संख्या पांच लाख से कुछ अधिक थी। इनमें पार्श्व-परम्परा के साधु, अन्यमती, परिव्राजक, आठ राजा, श्रेणिक के पुत्र और रानियां, धनकुबेर, आर्येतर, आर्दक, हरिकेशी चंडाल तथा हत्यारा अर्जुनमाली और अट्ठारह गणों के नरेश आदि समाहित हैं। उन्होंने कोई नई परम्परा नहीं चलायी, अपितु प्रवर्तमान जिन परम्परा को युगानुकूलित कर संरक्षित किया और स्थायित्व प्रदान किया। उन्होंने धर्मोपदेश तथा आत्मधर्म का प्रचार- ये दो कार्य किये। उनके उपदेश सामान्य जीवन की घटनाओं के उदाहरणों एवं प्रश्नोत्तरों से पूर्ण, आकर्षक एवं ज्ञानवर्धक होते थे। उनके गणधर और उत्तरवर्ती आचार्य ही अनुयायियों की विविध कोटियों के अनुशासक बने। ये पदयात्री रहे और जनसम्पर्की भी । उन्होंने ही महावीर के उपदेशों को बारह पवित्र ग्रंथों के रूप में संग्रहीत किया, जिनमें सैद्धांतिक, विश्वकोशीय एवं कथात्मक विवरण हैं। इनका लिखित रूप पांचवी सदी के आस
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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