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________________ ८८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ में “गुणस्थान' की संज्ञा दी जाती है। इन चौदह गुणस्थानों का अनुसरण करता । हुआ साधक चौदहवें अर्थात् अन्तिम गुणस्थान में अपने आयुकर्म का भी क्षय करके सिद्ध और मुक्त कहलाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि शैव दर्शन में भी मुक्ति एकाएक नहीं प्राप्त हो जाती अतएव जीव उत्तरोत्तर विकास करता हुआ क्रमश: मुक्त होता है। इस आध्यात्मिक उत्कर्ष को शैव सिद्धान्ती “दश कार्य" कहते हैं। जब साधक मुक्ति की अन्तिम अवस्था को प्राप्त करता है तो वह बिना ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से ही सब जान जाता है। यह शिव ज्ञान प्राप्ति की वह अवस्था है जिसे शैव सिद्धान्त में उच्चतर ज्ञान अथवा दिव्य ज्ञान कहा जाता है। जैन दर्शन इसी अवस्था को आत्मपूर्णता की अवस्था मानता है। अत: यहां दोनों ही दर्शनों में मुक्ति की अवस्था का विचार लगभग एक-सा ही है, अलग है तो प्रतिपादन का दृष्टिकोण। जैन दर्शन में मुक्ति में जीव का अभाव नहीं माना गया है। आचार्य विद्यानन्द का कहना है कि जीव के अभाव को सिद्ध करने वाला न तो कोई निर्दोष प्रमाण है और न दूसरा सम्यक् हेतु ही है। अत: वह अन्य दर्शनों में वर्णित इस अवधारणा का विरोध करता है। दूसरी तरफ शैव सिद्धान्त की मान्यता है कि अज्ञान दूर हो जाने पर आत्मा परमात्मा से मिल जाती है फिर भी जीव के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता है। अगर मुक्ति की अवस्था में केवल परमात्मा ही रहता है तो मुक्ति किसकी होती है। अत: शैव सिद्धान्ती भी मुक्ति में जीव का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। इस दृष्टि से दोनों दर्शनों में समानता है। एक और विषमता शैव और जैन इन दोनों दर्शनों में मुक्त आत्मा के स्वरूप को लेकर पाई जाती है। ज्यादातर भारतीय दर्शनों की भाँति शैव सिद्धान्त भी मानता है कि जीव जब मोक्ष प्राप्त कर लेता है तो मुक्त हो जाता है और वर्तमान शरीर उस मुक्त जीव का शरीर नहीं होता है। मुक्त जीव उससे भिन्न होता है किन्तु उसका कोई स्वरूप नहीं होता अर्थात् वह निराकार होता है। लेकिन इसके विपरीत जैन दार्शिनिक इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा से मुक्त जीव निराकार होता है क्योंकि वह इन्द्रियों से दिखाई नहीं देता है, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से वह साकार होता है। साथ - ही मुक्त जीव सर्वलोक व्यापी भी नहीं होता। क्योंकि सांसारिक जीव में संकोच विस्तार का कारण शरीर होता है और मोक्षावस्था में कार्य-कारण का सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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