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________________ ७८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ . १. संशय, २. प्रतिभा, ३. स्वप्न, ४. वितर्क, ५. सुख-दुःख, ६. क्षमा, २ और ७. इच्छा । संशय कैसे होता है? यह न तो इन्द्रियों से होता है और न आत्मा से ही होता है। यह सिर्फ मन के कारण होता है। प्रतिभा का बोध इन्द्रियों को नहीं होता, उसे मन ग्रहण करता है। स्वप्न में मन की ही प्रधानता होती है। आधुनिक मनोविज्ञान भी बताता है कि स्वप्न देखने वाला अर्धनिद्रा की स्थिति में होता है। उस समय उसकी इन्द्रियाँ काम नहीं करती हैं। उसे स्वप्न में जो भी बोध होता है वह मन के कारण ही होता है। तर्क-वितर्क में मन की भूमिका होती है। तर्क के आधार का बोध तो मन को ही होता है। सुख-दुःख का बोध मन को होता है। इन्द्रियों से क्षमा कार्य नहीं होता है। मन ही किसी के अपराध को क्षमा करता है। जो भी इच्छाएँ होती हैं, वे मन के कारण ही होती हैं। इन्द्रियों से कोई क्षमा प्रदान नहीं कर सकता है। अत: ये विविध क्रियाएँ ये बताती हैं कि मन की सत्ता है। न्याय दर्शन में यह माना गया है कि चूँकि बहुत से ज्ञान एक ही साथ उत्पन्न नहीं होते हैं इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि मन है। इसका मतलब है कि इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य करती रहती हैं। अपनी क्षमताओं के अनुकूल विविध सामग्रियाँ ग्रहण करती रहती हैं। किन्तु उन सबका बोध व्यक्ति को नहीं होता। जिस सामग्री का मन से सम्पर्क होता है उसी का ज्ञान होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मन की सत्ता है। अन्नम भट्ट का यह मानना है कि सुख आदि की प्राप्ति यह बताती है कि मन है। सुख-दुःख का बोध मन के कारण ही होता है। मन का स्थान मन समूचे शरीर में व्याप्त है। इन्द्रिय और चैतन्य में पूर्ण व्याप्ति 'जहाँजहाँ चैतन्य है, वहाँ-वहाँ इन्द्रिय है', का नियम नहीं होता। मन की चैतन्य के साथ पूर्ण व्याप्ति होती है, इसलिए मन शरीर के एक देश में नहीं रहता, उसका कोई नियत स्थान नहीं है। जहाँ-जहाँ चैतन्य की अनुभूति है, वहाँ-वहाँ मन अपना आसन बिछाए हुए है। मन और इन्द्रिय जैन दर्शन यह मानता है कि इन्द्रिय के द्वारा जो कुछ होता है उसमें मन का होना अनिवार्य है, क्योंकि मन के बिना इन्द्रियों के द्वारा ग्रहित सामग्रियों का कोई अर्थ नहीं होता है। किन्तु मन की जो गतिविधियाँ होती हैं उनमें इन्द्रियों की उपस्थिति हो सकती है और नहीं भी हो सकती है। अर्थात् मन इन्द्रियों से अलग रहकर भी अपनी गति कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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