SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई-दिसम्बर २००६ जैन चिन्तन में मन की अवधारणा डॉ० अजय कुमार - मनन करना मन है अथवा जिसके द्वारा मनन किया जाता है वह मन है। इसी अर्थ में जैन दर्शन पंचेन्द्रिय जीवों को दो वर्गों में विभाजित करता है। पंचेन्द्रिय जीवों को यद्यपि पाँच इन्द्रियां होती हैं, फिर भी सिर्फ मनुष्य ही समनस्क होता है। अन्य पंचेन्द्रिय जीव अमनस्क होते हैं। समनस्क का अर्थ हैमन के साथ तथा अमनस्क का अर्थ होता है बिना मन के। मनुष्य मनन या चिन्तन कर सकता है, इसलिए उसे समनस्क कहते हैं। मन का जो कार्य होता है वह मनुष्य में होता है। पंचेन्द्रिय पशु आदि चिन्तन नहीं करते जिससे यह समझा जाता है कि उनके पास मन नहीं है और उन्हें अमनस्क कहा जाता है। अनिन्द्रिय- मन को अनिन्द्रिय कहते हैं, अर्थात् वह इन्द्रिय की कोटि में नहीं आता है। किन्तु ऐसा इसलिए कहा जाता है कि मन अत्यन्त सूक्ष्म होता है। अनिन्द्रिय का मतलब इन्द्रिय का अभाव नहीं माना जाता है। इसके लिए एक उदाहरण दिया जा सकता है कि यदि किसी लड़की को अनुदरा कहा जाता है तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि उसे उदर नहीं है, बल्कि अनुदरा का यह अर्थ होता है कि वह गर्भ धारण नहीं कर सकती है या पेट का जो काम है गर्भ धारण करना उससे वह वंचित है, अत: वह अनुदरा है।। अन्तःकरण- मन को अन्त:करण भी कहा जाता है, क्योंकि इसे वह बाहरी आकार प्राप्त नहीं होता है जो इन्द्रियों को प्राप्त होता है। कान में सनने की शक्ति होती है, साथ ही कान की बाहरी आकृति भी होती है। आँख में देखने की क्षमता होती है, साथ ही आँख की आकृति भी होती है। इसी तरह अन्य इन्द्रियों की भी अपने-अपने कार्यों की क्षमताएँ होती हैं और बाह्य आकार भी होते हैं। मन मनन तो करता है लेकिन बाह्य रूप में दिखाई नहीं पड़ता है। इसलिए इसे अन्त:करण कहते हैं। यह आन्तरिक साधन है। * एन-४/४ बी.-४ आर, शान्ति निलयन, कृष्णपुरी, करौंदी, वाराणसी-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy