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७४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई - दिसम्बर २००६
की ओर होती है।
इस प्रकार मार्क्स के दर्शन में हमें विशिष्ट भौतिक परिस्थितियों के ऊपर ही प्रत्ययों एवं विचारों की निर्भरता परिलक्षित होती है। अंत में हम कह सकते हैं कि आत्मनिर्भर, व्यवस्थित, शाश्वत, अमूर्त एवं परिकल्पनात्मक दर्शन के लिए मार्क्स के दर्शन में कोई भी स्थान नहीं है। विश्व को परिवर्तित करने में जो भी दर्शन समर्थ है उसे ही मार्क्स के अनुसार दर्शन के अन्तर्गत रखा जा सकता है। मार्क्सवाद के अनुसार व्यक्ति तब तक मुक्त नहीं हो सकता जब तक समाज मुक्त न हो। अतः मार्क्सवाद व्यक्ति की मुक्ति के लिए कोई आधार प्रस्तुत नहीं करता है।
उपर्युक्त चारों दृष्टियाँ एकांगी हैं। प्रथम दृष्टि अस्तित्व की स्वतंत्रता एवं एकता के प्रतिपादन के लिए जगत् के चित्राकार स्वरूप की यथार्थता का ही निषेध कर देती है। द्वितीय दृष्टि सभी को भ्रमात्मक एवं शून्य मानती है। अतः बन्धन और मोक्ष में कोई भेद नहीं करती है। नागार्जुन का कहना है कि जो संसार है वही निर्वाण है और जो निर्वाण है वही संसार है। चतुर्थ दृष्टि सामान्य, को महत्त्व नहीं देती है तथा पंचम दृष्टि विशेष को महत्त्व नहीं देती है। जैन दर्शन उपर्युक्त विचारों को यथार्थता की दृष्टि से समन्वय करने का प्रयास करता है। तत्त्व अनेकान्त स्वरूप वाला है, वह द्रव्यगुण तथा पर्याय तीनों के समन्वित रूपवाला है, वह सामान्य भी है तथा विशेष भी। यदि पृथ्वी पर पैदल चलने में कठिनाई होती है तो पृथ्वी को मिथ्या मान लेने से एक सुखद अनुभूति तो हो सकती है लेकिन उससे हमारी समस्याएँ कम नहीं होती हैं। जैन दर्शन महावीर का दर्शन है जिसमें बाधाएँ यथार्थ हैं तो उनका अतिक्रमण भी यथार्थ है । अत: जैन दर्शन मनुष्य की प्रारम्भिक अनुभूतियों के साथ न्याय करने के लिये ही “ अनेकान्तवाद" जैसे सिद्धान्त की प्रतिष्ठा करता है।
सन्दर्भ - सूची
१.
अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य को अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। जो जीव का नैसर्गिक धर्म है।
(षडदर्शनसमुच्चय पर गुणरत्न की टीका )
२. अनन्तधर्मात्मकं वस्तुः - हरिभद्र, षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० ५७
३. ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
४. सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, तैत्तिरीयोपनिषद्, २४
५. अनुभव एवं मृषा
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नागार्जुनकारिका (सेंट पीट्सवर्ग संस्करण) टीका, पृ० ५८
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