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श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई-दिसम्बर २००६
प्राकृत महाकाव्यों में ध्वनि-तत्त्व
साहित्यवाचस्पति डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव *
आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने प्रसिद्ध काव्यानुशासन 'साहित्यदर्पण' ध्वनि-तत्त्व से सम्पन्न काव्य को उत्तम काव्य की संज्ञा दी है: 'वाच्यातिशायिनि व्यङ्ग्ये ध्वनिस्तत्काव्यमुत्तमम् । ' (अध्याय ४: कारिका १) अर्थात्, वाच्य से अधिक चमत्कारजनक व्यंग्य को ध्वनि कहते हैं और जिस काव्य में ध्वनि की प्रधानता होती है, उसे ही उत्तम काव्य कहा जाता है। वस्तुतः, व्यंग्य ही ध्वनि का प्राण है। प्रसिद्ध ध्वनिप्रवर्त्तक आचार्य आनन्दवर्द्धन (नवीं शती) के अनुसार ध्वनि (ध्वन् + इ) काव्य की आत्मा है या वह एक ऐसा काव्यविशेष है, जहाँ शब्द और अर्थ अपने मुख्यार्थ को छोड़ किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करते हैं । वस्तुतः, ध्वनि, काव्य के सौन्दर्यविधायक तत्त्वों में अन्यतम है।
सभी विद्याएँ व्याकरणमूलक हैं, इसलिए ध्वनि का आदिस्रोत वैयाकरणों के स्फोट-सिद्धान्त में निहित है । 'ध्वन्यालोक' की वृत्ति (१.१६ ) से स्पष्ट है कि साहित्यशास्त्रियों ने 'ध्वनि' शब्द को वैयाकरणों से आयत्त किया है। वैयाकरणों के अनुसार, स्फोट को अभिव्यक्त करने वाले वर्णों को ध्वनि कहते हैं। प्रसिद्ध वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि ने 'वाक्यपदीय' में कहा है कि वर्णों के संयोग और वियोग, अर्थात् मिलने और हटने से जो स्फोट उत्पन्न होता है, शब्द या वर्णजनित वही शब्द ध्वनि है। और फिर, स्फोट का परिचय या परिभाषा प्रस्तुत करने के क्रम में आचार्य भर्तृहरि ने कहा है कि शब्द के दो भेदों - प्राकृत और वैकृत में प्राकृत ध्वनि स्फोट के ग्रहण में कारण है। शब्द की अभिव्यक्ति से जो आवाज होती है, वह वैकृत ध्वनि है और वह भी स्फोटस्वरूप ही है। वस्तुतः ध्वनि और स्फोट में एकात्मकता है।
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ध्वनिवादी आचार्य रस को ध्वनि का अंग मानते हैं। उन्होंने ध्वनि के
* ७, भारतीय स्टेट बैंक कॉलोनी, काली मन्दिर मार्ग, हनुमाननगर, कंकड़बाग,
पटना- ८०००२०
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