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________________ श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई-दिसम्बर२००६ अनेकान्तवाद-एक दृष्टि डॉ. जयशंकर सिंह भारतीय परम्परा अध्यात्मवादी परम्परा है। अत: यह परम्परा व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी आध्यात्मिक आधार पर करने में विश्वास रखती है। अनेक परम्पराएँ मनुष्य को व्यक्ति के रूप में अथवा समाज के एक अंग के रूप में अथवा सृष्टि के एक अंग के रूप में देखने में विश्वास करती हैं। ईसाई और मुस्लिम धर्मों में भी व्यक्ति को सृष्टि का एक अंग माना जाता है और ईश्वर ने सृष्टि की उत्पत्ति शून्य से की है अत: किसी व्यक्ति का अस्तित्व पूर्णत: सापेक्ष हो जाता है। ऐसे धर्मों के सम्बन्ध में मानव के अस्तित्व की महत्ता समाप्त हो, जाती है। पाश्चात्य दर्शन में अनेक ईश्वरवादी तथा अस्तित्ववादी दार्शनिक पाये जाते हैं लेकिन सत्ता की दृष्टि से यदि मनुष्य ईश्वर पर निर्भर है तो उसका अस्तित्व ही परतंत्र हो जाता है, अत: इनमें व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं होता। इसके विपरीत यदि हम अनीश्वरवादी, अस्तित्ववादी तथा जड़वादियों के मत स्वीकार करतें हैं तो मनुष्य का अस्तित्व एक सीमित अस्तित्व के रूप में ही उभरता है। मनुष्य एक सीमित प्राणी है और इस सीमा के कारण ही जैसा कि हाइडेगर का मत है, बुद्धि और इन्द्रिय संवेदन का भेद प्रतीत होता है। मनुष्य का दर्शन एवं ज्ञान सीमित है इसलिए उसे बौद्धिक परिकल्पना की आवश्यकता होती है। अत: सीमित मनुष्य के द्वारा उत्पादित वस्तुओं का परिमाण कितना भी क्यों न हो वह मानवी सीमा को आनन्द से जोड़ने में सक्षम दिखाई नहीं पड़ती है। भारतीय आध्यात्मिक परम्परा के चाहे एकतत्त्ववादी दार्शनिक हों, चाहे बहुतत्त्ववादी दार्शनिक (जैसे- जैन विचारक) हों वे मनुष्य के अस्तित्व को अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त क्रिया से जोड़ने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार मनुष्य दो प्रकार की परतंत्रता से मुक्त हो जाता है, प्रथम- किसी अन्य सत्ता * दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दी विश्वविद्यालय, वाराणसी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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