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________________ ६४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ आज राजनीतिक पचड़े में पड़कर सारा विश्व विवादों के चक्कर में फंसा हुआ है। कोई कहता है कि समाजवाद ही समस्याओं को सुलझा सकता है, तो दूसरा कहता है कि साम्यवाद से ही विश्व में शान्ति हो सकती है। तीसरा कहता है कि पूँजीवाद की छत्र-छाया में ही संसार सुख की सांस ले सकता है। अर्थात् वर्तमान समाज, समाजवाद या पूँजीवाद के नाम पर खण्डों में विभाजित हो गया है। इस विभाजनपूर्ण नीति से तथा पारस्परिक तनाव एवं संघर्ष से विश्व के राजनीतिक मंच पर ईर्ष्या, कलह, संघर्ष, भय और द्वन्द्व आदि का वातावरण बना हुआ है। इस तरह के विरोधी विचारों के बुरे परिणाम होते हैं। प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध इसका ज्वलन्त उदाहरण है। विश्वयुद्ध रूपी महाताण्डव से प्रायः सभी देशवासी बचना चाहते हैं। उसके लिए विभिन्न संगठनों की भी स्थापना की गई है। परन्तु इन संगठनों के द्वारा युद्ध की विभीषिका को नहीं रोका जा सकता। यदि देश की शक्ति को कुछ दबाकर रोकने का प्रयास किया गया तो यह युद्ध को कुछ समय के लिए भले ही रोकने में समर्थ हो, परन्तु स्थायी समाधान के लिए लोगों के विचारों में परिवर्तन लाना होगा। प्रत्येक व्यक्ति या राष्ट्र को सिर्फ अपने ही देश के हित को ध्यान में रखकर नहीं सोचना होगा, बल्कि दूसरे देश के हित की ओर भी ध्यान देना होगा अर्थात् अनेकान्तवादी या समन्वयवादी विचार लाना होगा।१२ सन्दर्भ १. ब्रह्म सर्वगतं तस्माद्यथा यत्र यदोदितम्। भवत्याशु तथा तत्र स्वप्नशत्तयैव पश्यति।। योगवासिष्ठ ३/५२/४२. सर्वत्र सर्वथा सर्व सर्वदा सर्वरूपिणि। वही ६/२/१५९/४१. सर्व सर्वात्म सर्वत्र सर्वदास्ति तथा परे। वही ६/२/१३/२८. सर्वत्र सर्वशक्तित्वाद्यत्र या शक्तिरूनयेत। आस्ते तत्र तथा भाति तीव्रसंवेगहेतुतः।। वही ३/५२/४३. २. महेन्द्र कुमार जैन, जैन दर्शन, श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन संस्थान, वाराणसी, १९७४, पृ. ४३१. Cf. 'Religious differences among people have been seen so severe that most sanguinary battles have been fought on this account. Even now the difference in the religious views is at the root of among other differences in two men.' - H.S. Bhattacharya,' Anekāntavāda (Shree Jaina, Atmanand Sabha, Bhawnagar, 1953), p. 200 Cf. They were honest in their beliefs about a point in their religions, but they omitted to consider that those who dissented from their views might have been as sincere in their views as themselves. To arrive at the right Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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