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________________ जैन दर्शन में ईश्वर विचार : ५५ का बोध होता है। अतः यह कहना सर्वथा गलत है कि एक कर्ता होने से ही कार्य में एकता और क्रमबद्धता होती है और इसके आधार पर यह मान लेना भी गलत है कि जगत् का कर्ता यानी ईश्वर एक है, क्योंकि उसके कार्य में एकता और क्रमबद्धता है। ६. ३. ईश्वर सर्वव्यापी नहीं है: ऐसा कहने का मतलब यह है कि ईश्वर सब जगह है। कोई जगह ऐसी नहीं है जहां ईश्वर नहीं है । किन्तु ईश्वरवादी जब ईश्वर को इस जगत् का कर्ता मानते हैं तो निश्चित रूप से ईश्वर और उसके कार्य अलग-अलग स्थानों पर होंगे, क्योंकि निमित्त कारण या कर्ता हमेशा अपने कार्य से अलग होता है जैसे- बढ़ई कुर्सी से अलग होता है। जिस स्थान पर बढ़ई होता है ठीक उसी स्थान पर कुर्सी नहीं होती। उसी तरह यदि ईश्वर इस जगत् का निमित्त कारण है तो अवश्य ही वह अपने कार्य यानी जगत् से अलग है अर्थात् वह सर्वव्यापी नहीं है । ४. ईश्वर स्वतंत्र नहीं है: इस लक्षण से यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर जो कुछ करता है अपनी इच्छा से करता है । उसकी कोई विवशता नहीं है। ईश्वर इस जगत् का सृष्टिकर्ता है, इसलिए जगत् में जो भी सुख-दुःख, अच्छाबुरा, शु-अशुभ है वे सभी ईश्वरकृत हैं। ईश्वर सुख पैदा करता है, शुभ पैदा करता है, यह तो ठीक मालूम होता है, किन्तु वह दु:ख, दारिद्र, अशुभ क्यों पैदा करता है। इनसे तो प्राणी (मनुष्य) दुःखित ही होते हैं। ईश्वर को परम दयालु, दया का सागर, दीन - वत्सल आदि तरह-तरह के विशेषणों से सम्बोधित किया जाता है। यदि वह दयालु है तो दुःख क्यों पैदा करता है, अशुभ क्यों उत्पन्न करता है। ईश्वर यदि दुःख पैदा करता है तो इससे यह ज्ञात होता है कि वह दयालु नहीं है, कृपालु नहीं है। किन्तु ईश्वरवादी इस बात से सहमत नहीं होते कि ईश्वर दयालु नही हैं। यदि ईश्वरवादियों की यह बात मान ली जाये कि ईश्वर दयालु है, परम कृपालु है तो इसके साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि दयालु होते हुए भी वह दुःख, दारिद्र, अशुभ उत्पन्न करता है। यानी ऐसा करने के लिए वह विवश है। यदि वह विवश होकर के दुःख, दारिद्र उत्पन्न करता है तो वह स्वतंत्र नहीं है । - ५. ईश्वर नित्य नहीं है: ' ईश्वरवादी ईश्वर को नित्य कहते हैं। क्योंकि ईश्वर के अनित्य होने पर उसके जन्म, मरण, माता-पिता आदि की कई समस्याएं उठ खड़ी हो सकती हैं। अतः इन समस्याओं के समाधान के लिए ईश्वरवादी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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