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________________ ५० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ में ये ही आठ दोष आते हैं, अतः सामान्य विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण द्वारा ग्राह्य नहीं होता है। इस पूर्वपक्ष को उपस्थापित कर इनका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि कथञ्चित् भेदाभेदात्मकत्व होने को ही तादात्म्य कहा जाता है, क्योंकि पर्यायपने से वस्तु में भेद है १५ और द्रव्यपने से अभेद है, द्रव्य और पर्याय स्वभाव ही भेदाभेदरूप हुआ करते हैं, वस्तु न द्रव्यमात्र है और न पर्यायमात्र ही है; किन्तु उभयात्मक समुदाय ही वस्तु है । द्रव्य और पर्याय में अकेले-अकेले को वस्तु नहीं कहते और न अवस्तु ही कहते हैं अपितु वस्तु का एक देश कहते हैं, जैसे समुद्र का अंश न समुद्र है और न असमुद्र ही है; किन्तु समुद्र का एक देश है। - वस्तु को भेदाभेदात्मक मानने से संशय, विरोध आदि दोष आते हैं, ऐसा कहना अयुक्त है, क्योंकि भेद और अभेद का परस्पर में विरोध भी नहीं है । वस्तु अपने धर्म की अपेक्षा सत्वरूप और पर की अपेक्षा असत्वरूप कहलाती है, वैसे ही द्रव्य की अपेक्षा अभेदरूप और पर्याय की अपेक्षा भेदरूप कहलाती है। अतः भेदाभेदात्मक होने में कोई विरोध नहीं है। १६ यदि ऐसा उपलब्ध न होता तो विरोध आता। वस्तु में स्वस्वरूपादि की अपेक्षा सत्व मानने पर उसी समय पररूपादि की अपेक्षा असत्व मानने का अनुपलम्भ नहीं हैं, क्योंकि वस्तु का स्वरूप सर्वथा भावरूप ही नहीं हुआ करता और न ही वस्तु सर्वथा अभाव रूप ही हुआ करती है। एक ही वस्तु में अस्ति नास्ति, भेद-अभेद, नित्यअनित्य, एक-अनेक इत्यादि विरोधी धर्म साक्षात् प्रतीति में आते हैं, अत: उनको उसी तरह मानना चाहिए। विरोध तब होता है जब वस्तु वैसी प्रतिभासित न हो। भेद और अभेद, सत्व-असत्व इत्यादि धर्मों को एकत्र मानने में वैयधिकरण्य नामक दोष भी नहीं आता, १७ क्योंकि जैन भेद और अभेद या सत्त्व और असत्त्व को परस्पर की अपेक्षा से रहित नहीं मानते अर्थात् ये दोनों धर्मपरस्पर निरपेक्ष होकर एकत्व रूप रहते हैं- ऐसा नहीं मानते जिससे कि उभयदोष आये। जैन दार्शनिक तो सापेक्षभूत सत्वासत्व में ही एकत्व स्वीकार करते हैं और वस्तु में ऐसा सापेक्ष सत्त्व असत्वादि की प्रतीति भी भली प्रकार से होती है। भेद - अभेद आदि को एकत्र मानने में संकर व्यतिकर नामक दोष मानना भी अयुक्त है, क्योंकि वस्तु में स्वरूप से ही उन दोनों की प्रतीति आ रही है । १८ अनवस्था दोष भी भेदाभेदात्मक वस्तु में दिखायी नहीं देता, क्योंकि धर्मी पदार्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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