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________________ जैन दर्शन का कारणता सिद्धान्त : ४९ "भावत्वाभावलक्षणोऽनेकात्मकत्वे चैकस्वभावत्वाभावलक्षणोऽनेकात्मकत्वे चैकस्वभाववत्वाभावलक्षण: सोत्राप्यनुषज्यते' इत्युभयदोषः। तथा 'यन स्वभावेनानार्थस्यैकस्वभावता तेनानेकस्वबावत्वस्यापि प्रसङ्गः, येन चानेकस्वभावता तेनैकस्वभावत्वस्यापि' इति सङ्करप्रसङ्गः। “सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः" इत्याभिधानात्। तथा 'येन स्वभावेनानेकत्वं नेनैकत्वं प्राप्नोति येन चैकत्वं नेनानेकत्वं' इति व्यतिकरः। ‘परस्परविषयगमनं व्यतिकरः" इति प्रसिद्धः तथा 'येन रूपेण भेदस्तेन कथञ्चिद्भेदो येन चाभेदस्तेनापि कथञ्चिदभेदः' इत्यनवस्था। अतोऽप्रतिपत्तितोऽभावस्तत्त्वस्यानुषज्येतानेकान्तवादिनाम्। एवं सत्त्वाधनेकान्ताभ्युपगमेप्येतेष्टै दोषा द्रष्टयाः। तन तदात्मार्थः प्रमाणप्रमेयः।१४ अर्थात् यदि तन्तु और वस्त्र इत्यादि पदार्थों में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद मानते हैं तो इस पक्ष में संशय, अभाव आदि दोष आते हैं। इसी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि भेदाभेदात्मक वस्तु में असाधारण आकार से निश्चय नहीं हो सकने के कारण किस स्वरूप से भेद है और किस स्वरूप से अभेद है- ऐसा संशय होता है। जहाँ अभेद है वहीं भेद का विरोध है और जहाँ भेद है वहाँ अभेद के रहने में विरोध है जैसे कि शीत और उष्ण का विरोध है। अभेद तो एकस्वभावी होने से अन्य अधिकरणभूत है और भेद अनेकस्वभावी होने से अन्य अधिकरण वाला है, यह वैयधिकरण्य दोष है तथा पट् आदि वस्तु को सर्वथा एकात्मक मानते हैं तो अनेक स्वभाव का अभाव होना रूप दोष आता है और सर्वथा अनेकात्मक माने तो एक स्वभाव का अभाव होना रूप दोष आता है, इस तरह उभय दोष उपस्थित होते हैं। जिस स्वभाव से एक स्वभावपना है उस स्वभाव से अनेक स्वभावपने का भी प्रसंग आता है एवं जिस स्वभाव से अनेक स्वभावपना है उस स्वभाव से एक स्वभावपना भी हो सकने से संकर नामक दूषण आता है, 'सर्वेषां युगपत् प्राप्ति: संकर:'- ऐसा संकर दोष का लक्षण है। जिस स्वभाव से अनेकत्व है उससे एकत्व प्राप्त होता है और जिससे एकत्व है उससे अनेकत्व प्राप्त है, अत: व्यतिकरदोष उपस्थित होता है, 'परस्परविषयगमनं व्यतिकर:'- ऐसा व्यतिकर दोष का लक्षण है तथा जिस रूप से भेद है उससे कथञ्चित् भेद है और जिस रूप से भेद है उससे कथञ्चित् अभेद है, अत: यह अनवस्था नामक दोष आया। इस तरह वस्तु के स्वरूप की अप्रतिपत्ति होने से उसका अन्त में जाकर अभाव ही हो जाता है, . इस प्रकार अनेकान्तवादी जैन के यहाँ माने हुए तत्त्व में संशयादि आठों दूषण आते हैं। इसी तरह वस्तु को कथञ्चित् सत् और कथञ्चित् असत् रूप मानने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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