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________________ जैन दर्शन का कारणता सिद्धान्त : ४५ दोनों अंश शीत और उष्ण की भाँति परस्पर विरुद्ध होने से एक ही समय में कैसे स्थित रह सकते हैं? इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है कि जैनदर्शन परिवर्तनरहित सदैव एकरूप रहने वाली वस्तु को नित्य नहीं मानता अपितु उसकी दृष्टि में अपनी जाति से च्युत न होना ही 'नित्यत्व' का लक्षण है। अनुभव से भी परिणामी नित्यता के सिद्धान्त की पुष्टि होती है। जैसे स्वर्णपिण्ड कुण्डल या कंगन आदि में परिणामित होते हुये भी अपने स्वर्णत्व से च्युत नहीं होता। यहाँ सत् को परिणामी नित्य कहा जा सकता है। परिणामी नित्यता की अवधारणा जैनियों के इस कथन से भी उभर कर सामने आती है जब वे प्रत्येक वस्तु में गुण और पर्याय रूप दो धर्मों की अवस्थिति मानते हैं। यहाँ गुण किसी वस्तु का अनिवार्य धर्म है जबकि पर्याय उस वस्तु का आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म है। इन्हीं पर्यायों की उत्पत्ति व विनाश से द्रव्य में परिवर्तन दिखाई पड़ता है, किन्तु द्रव्य की पहचान उसके अनिवार्य धर्म से बनी रहती है। जैन दार्शनिकों ने कारणता की व्याख्या दो दृष्टि से की है - (१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक नय। जैन द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से 'सत्यकार्यवाद और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से 'असत्कार्यवाद' को स्वीकार करते हैं। जैनसांख्य के इस मत से सहमत हैं कि 'असत्' की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यथा 'मृत्तिका' से घट की उत्पत्ति होती है । मृत्तिका (द्रव्य) की दृष्टि से घट (कार्य) नवीन उत्पत्ति नहीं है। घट के नष्ट हो जाने पर भी मृत्तिका का नाश नहीं होता । इस प्रकार द्रव्य की दृष्टि से न असत् की उत्पत्ति होती है और न ही सत् का विनाश होता है। इसी प्रकार पर्याय की दृष्टि से 'असत्' की उत्पत्ति होती है । यथा मृत्तिका में घट अपने आकार-प्रकार से नहीं रहता, उसकी नवीन उत्पत्ति होती है और उत्पन्न हुये घट का विनाश भी सम्भव है। इस तरह हम देखते हैं कि द्रव्य रूप में कार्य उत्पत्ति के पूर्व भी सत् होता है और इस द्रव्य रूप में उसकी उपलब्धि भी होती है। जबकि पर्याय रूप में कार्य उत्पत्ति के पूर्व असत् होती है और इस रूप में उस समय उसकी उपलब्धि नहीं होती । पर्याय का पूर्व में सद्भाव न होने से, पर्याय रूप में कार्य का आद्यक्षण सम्भव होने से आक्षण सम्बन्ध रूप पदार्थ की उपपत्ति में भी कोई बाधा नहीं हो सकती । जैसे घट के दो अंश होते हैं- एक मृत्तिका और दूसरा जलाहरण की क्षमता का सम्पादक उसका आकार । मृत्तिका के रूप में घट पहले से ही विद्यमान होता है, अतः इस अर्थ में जैन दार्शनिक सत्कार्यवाद के इस मत से सहमत हैं कि सत् का अभाव नहीं हो सकता और असत् का उत्पाद नहीं हो सकता। • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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