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________________ श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई-दिसम्बर २००६ जैन दर्शन का कारणता सिद्धान्त डॉ. श्रुति दुबे जैन दर्शन मूलतः एक समन्वयवादी दर्शन है। उसकी दृष्टि अनेकान्तवादी है। अपने सापेक्षवादी और अनेकान्तवादी दृष्टि से जैन दर्शन ने सत्-असत्, भेदअभेद, नित्य-अनित्य आदि प्रत्ययों के बीच समन्वय स्थापित किया है। जैन दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद का समर्थन ‘नयवाद' और 'स्याद्वाद' इन दो सिद्धान्तों के माध्यम से किया है। अनेकान्तवाद की तात्त्विक दृष्टि यह है कि सभी वस्तुओं के अनेक धर्म हैं। तत्त्व को अनन्तधर्मात्मक माना गया है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। जैसे घट में भाव रूप धर्म घटगत रूप, क्रिया आदि हैं तथा अभाव रूप धर्म घट के अतिरिक्त संसार में जितनी भी वस्तुएँ हैं उनका घट में अभाव है। इस प्रकार वस्तु के अनन्त धर्मों का ज्ञान किसी को नहीं हो सकता। इसी प्रकार जैनदर्शन का कारणता विषयक सिद्धान्त भी समन्वयवादी है, जिसे सदसत्कार्यवाद कहा गया है। सद्सत्कार्यवाद में कारणता विषयक विभिन्न समस्याओं का समाधान अनेकान्तवादी दृष्टि से किया गया है, जो जैनदर्शन के 'सत्' के स्वरूप से स्वतः निगमित होता है। इस दर्शन के अनुसार सभी सत् या पदार्थ उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य लक्षण वाले हैं। वस्तुतः प्रत्येक वस्तु के दो अंश होते हैं- एक अंश तो तीनों कालों में शाश्वत रहता है और दूसरा अंश उत्पाद, व्ययशील होने के कारण परिणामी होता है। शाश्वत अंश के कारण प्रत्येक वस्तु 'ध्रौव्यात्मक' है और अशाश्वत अंश के कारण उत्पाद-व्ययात्मक या अस्थिर कहलाती है। इन दो अंशों में से किसी की ओर दृष्टि जाने और दूसरी ओर न जाने से वस्तु केवल स्थिर रूप या केवल अस्थिर रूप प्रतीत होती है, किन्तु वस्तु के यथार्थ स्वरूप की अवगति उसके दोनों अंशों के ज्ञान से ही सम्भव है। किन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि एक ही वस्तु में स्थिरत्व और अस्थिरत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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