SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ वास्तुविद्या १२. युद्ध विद्या में युद्ध आदि। विद्या के केन्द्र प्राचीन भारत में राजधानियाँ, तीर्थस्थान और मठ-मंदिर शिक्षा के केन्द थे। राजा-महाराजा तथा सावन्त लोग साधारणतया, विद्या केन्द्रों के आश्रयदाता होते थे। समृद्ध राज्यों की राजधानियों में दूर-दूर के विद्वान् लोग आकर बसते और ये राजधानियाँ विद्या केन्द्र बन जाती थीं। वाराणसी शिक्षा का मुख्य केन्द्र था। शंखपुर का निवासी राजकुमार अगडदत्त विद्याध्ययन के लिए वाराणसी गया और वहाँ अपने उपाध्याय के घर रहकर उसने शिक्षा प्राप्त की, इसका उल्लेख पहले आ चुका है। श्रावस्ती शिक्षा का दूसरा केन्द्र था। पाटलिपुत्र भी लोग विद्याध्ययन के लिए जाते थे। दक्षिण में प्रतिष्ठान विद्या का बड़ा केन्द्र था।१८ तक्षशिला का उल्लेख बौद्ध-काल में अनेक स्थानों पर मिलता है; जैन सूत्रों में इसका उल्लेख नहीं आता। साधु और साध्वियों के उपाश्रय और वसति-स्थानों में भी उपाध्यायों के द्वारा परम्परागत शास्त्रों की शिक्षा देने के साथ-साथ शब्द, हेतुशास्त्र, छेदसूत्र, दर्शन, श्रृंगारकाव्य और निमित्तविद्या आदि सिखाये जाते थे। श्रमणों के संघों को चलती-फिरती पाठशालाएँ ही समझना चाहिए। विद्या के विभिन्न क्षेत्रों में शास्त्रार्थ और वाद-विवादों द्वार सत्य और सम्यग्ज्ञान को आगे बढाना, श्रमणों की शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों की आश्चर्यजनक विशेषता थी। वाद-पुरुष अपनी-अपनी स्थलियों और सभाओं में बैठकर दर्शनशास्त्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चर्चाएँ किया करते थे। जैन भिक्षुओं और रक्तपटों (बौद्धों) में इस प्रकार के सार्वजनिक शास्त्रार्थ हुआ करते थे। यदि कोई जैन भिक्षु स्वसिद्धांत का प्रतिपादन करने में पूर्णरूप से समर्थ न होता तो उसे दूसरे गण में जाकर तर्कशास्त्र अध्ययन करने के लिए कहा जाता। तत्पश्चात् राजा और महाजनों के समक्ष परतीर्थिकों को निरुत्तर करके भिक्षु बाद में जय प्राप्त करता।९ कोई परिव्राजक अपने पेट को लोहपट्ट से बांधकर और हाथ में जम्बू वृक्ष की शाखा लेकर परिभ्रमण करता था। प्रश्न करने पर वह उत्तर देता- "ज्ञान से मेरा पेट फट रहा है, इसलिए मैंने पेट पर लोहे का पट्टा बांधा है, और इस जम्बूद्वीप में मेरा कोई प्रतिवादी नहीं, इसलिए मैंने जम्बू की शाखा ग्रहण की है'२०। धर्म और नीतिशास्त्र के कलाकारों में कथिकों का नाम उल्लेखनीय है। ये लोग तरंगवती, मलयवती आदि आख्यायिकाओं, धूर्ताख्यान आदि आख्यानकों, गीतपद, श्रृंगारकाव्य, वासुदेव चरित और चेतक कथा आदि कथाओं तथा धर्म, अर्थ और काम सम्बन्धी कथाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy