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________________ १५० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ भारतीय संस्कृति में वेदों के अनन्तर स्मृतियों को भी प्रमाण माना गया है। वेदों के लुप्त ज्ञान का प्रतिपादन स्मृतियों द्वारा किया गया है, इसलिए स्मृतियाँ लोक व्यवहार में प्रमाणभूत है तथापि वैदिक दर्शनों में स्मृतियों को एक पृथक प्रमाण के रूप में स्वीकृत नहीं किया गया है। इस सम्बंध में पं० सुखलालजी संघवी कहते हैं कि वैदिक परम्परा में श्रुति अर्थात् वेद का ही मुख्य प्रामाण्य है तथा स्मृति का प्रामाण्य श्रुति (श्रुतादि) के अधीन है। यही कारण है कि मीमांसा आदि वैदिक दर्शनों में स्मृति ज्ञान को अनुभव या प्रत्यक्ष के अधीन होने के कारण प्रमाण नहीं माना गया है।13 बौद्ध आचार्य भी स्मृति को प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। दिङ्नाग ने स्मृतिज्ञान को अनवस्था दोष के कारण प्रमाण नहीं माना है। दिङ्नाग का तर्क है कि यदि सभी ज्ञानों का प्रामाण्य स्वीकार किया जाए तो इच्छा, द्वेष आदि को भी प्रमाण मानना होगा इससे प्रमाण में अनवस्था दोष आ जाता जैन दार्शनिक अकलङ्क एवं उनके अनन्तर विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र वादिदेवसूरि तथा आचार्य हेमचन्द्र ने स्मृतिज्ञान को पृथक ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित किया है। अकलङ्क का मानना है कि स्मृति प्रमाण है क्योंकि वह अविसंवादी है। प्रत्यक्ष भी अविसंवादी होने से प्रमाण है, अर्थाकार होने से नहीं। यदि प्रत्यक्ष को अर्थाकार होने से प्रमाण माना जाएगा तो व्यवस्था नहीं बन सकेगी, क्योंकि प्रत्यक्ष का ग्राह्य एवं प्राप्य अर्थ भिन्न होता है। उसके द्वारा अर्थ क्रिया में विसंवाद उत्पन्न नहीं होता अतः उसे भी प्रत्यक्ष की भाँति प्रमाण मानना चाहिए। जब स्मृति विसंवादयुक्त होती है तो वह अप्रमाण या प्रमाणाभास कही जाती है।15 विद्यानन्द स्मृति को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित करते हुए कहते हैं कि स्मृति को अप्रमाण मानने पर प्रत्यभिज्ञान की प्रमाणता शक्य नहीं है। प्रत्यभिज्ञान के अप्रमाण होने पर तर्क की व्यवस्था नहीं होती। तर्क के प्रतिष्ठित होने पर अनुमान की प्रवृत्ति अशक्य है। अनुमान में प्रवृत्त होने पर प्रत्यक्ष का प्रामाण्य अवस्थित नहीं रहता है। इस प्रकार समस्त प्रमाणों के शून्य होने पर प्रमेय भी शून्य हो जाता है अर्थात् स्मृति को अप्रमाण मानने पर समस्त प्रमाणों एवं प्रमेयों के अभाव का प्रसंग आता है, किन्तु यह शून्यवाद भी बिना प्रमाण के सिद्ध नहीं होता। अतः स्मृति को प्रमाण मानना चाहिए।16 प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने भी स्मृति ज्ञान को विविध प्रकार से प्रमाण सिद्ध किया है तथा बौद्धों आदि की आशंकाओं का निवारण किया है। गृहीत अर्थ के अधिगममात्र से स्मृति को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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