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________________ स्मृति प्रमाण (प्रमाणमीमांसा के संदर्भ में एक समीक्षात्मक अध्ययन) : १४९ एवं 'चिन्ता' शब्द से तर्क प्रमाण का विकास किया है। अभिनिबोध शब्द से उन्होंने अनुमान प्रमाण का ग्रहण किया है। इसके साथ ही उन्होंने स्मृति को प्रत्यभिज्ञान अनुमान का कारण माना है। स्मृति को प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले अकलङ्क ने शब्द योजना के पूर्व इसे मतिज्ञान में तथा शब्द योजना के बाद श्रुतज्ञान में सम्मिलित किया है। विद्यानन्द ने तत् (वह) आकार वाले एवं अनुभूत अर्थ के विषय के ज्ञान को स्मृति कहा है। माणिक्यनन्दी के अनुसार संस्कार की जागृति से 'तत्' आकार ज्ञान स्मृति है। संस्कार को जैन दर्शन में धारणा भी कहा गया है। निर्णीत या अनुभूत अर्थ के ज्ञान का दृढ़तापूर्वक गृहीत होना धारणा अथवा संस्कार है। संस्कार से स्मृति का जन्म होता है। इसलिए अकलङ्क ने स्मृति को धारणा प्रमाण का फल कहा है। स्मृति भी प्रमाण है क्योंकि उसका फल प्रत्यभिज्ञान है। बिना स्मृति के प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है। वादिदेवसूरि ने संस्कार की जागृति से उत्पन्न, अनुभूत अर्थ के विषय का ज्ञान कराने वाला, एवं तत् आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहा है। आचार्य हेमचन्द्र ने स्मृति के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि-वासना की जागृति जिसमें कारण हो और 'वह' ऐसा जिसका आकार हो, वह ज्ञान स्मृति है। प्रशस्तपाद ने स्मृति को विद्या का एक प्रकार माना है। वे चार प्रकार की विद्याओं का निरूपण करते हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति एवं आर्षज्ञान। प्रशस्तपाद ने स्मृति को दृष्ट, श्रुत एवं अनुभूत अर्थों में शेषानुव्यवसाय (अनुमेयज्ञान) इच्छा अनुस्मरण एवं द्वेष का हेतु बतलाया है तथा अतीत के विषयों को ग्रहण करने वाला प्रतिपादित किया है।10 योगसूत्र में पतंजलि ने स्मृति को प्रमाण, विपयर्य, विकल्प एवं निद्रा की भाँति एक चित्तवृत्ति माना है तथा अनुभूत विषय के असम्प्रमोष को स्मृति कहा है। न्याय दर्शन के अनुसार एक ही ज्ञाता पूर्वकाल में ज्ञात विषय का जब पुनः ग्रहण करता है तो वह स्मरण कहलाता है। न्याय दर्शन में स्मरण को आत्मा का गुण कहा गया है;11 तथा स्मृति की उत्पत्ति में प्राणिधान, निबन्ध, अभ्यास आदि अनेक हेतुओं की गणना की गई है। न्यायवार्तिक में उद्योतकर ने प्रत्यक्ष ज्ञान का निरोध होने पर उसके विषय का अनुसंधान करने वाले प्रत्यय को स्मृति कहा है। ब्रह्मसूत्रशांकर भाष्य में स्मृति अधिकरण में स्मृति की चर्चा की गई है। सामुदायाधिकरण में शंकर ने वैभाषिक बौद्धों का खण्डन करते हुए द्रष्टा एवं स्मर्ता का एक कर्तृत्व अङ्गीकार किया है।12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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