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________________ लो १२६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ जाती थी। इसी प्रकार तन्तुवाय की शिल्पशाला को 'नन्तकशाला' और स्वर्णकार की शिल्पशाला को 'कलाशाला' नाम दिया गया था। नगर को स्वच्छ रखने के लिए शिल्पशालाओं का निर्माण प्राय: गाँव और नगरों के बाहर ही हुआ करता था। 'कल्पसूत्र' से ज्ञात होता है कि व्यापार की सुविधा के लिए तिराहे, चौराहे, सड़क और बाजार बने हुए थे। व्यापारियों के कारवाँ का उल्लेख भी इस ग्रन्थ से प्राप्त होता है। वस्त्र शिल्प - वस्त्रों पर किए गए चित्रांकन आगम यगीन वस्त्र को अतिविकसित अवस्था की ओर इंगित करते हैं। वस्त्र हल्के, सुन्दर, सुकोमल और पारदर्शी बनाए जाते थे।१० राजसी वस्त्र बहुमूल्य नगों से अलंकृत होते थे। जिनकी बनावट कई प्रकार की थी और उन पर हजारों नमूने कढ़ाई किए जाते थे।११ बहुमूल्य वस्त्र मुलायम तथा कसीदा किए हुए होते थे तथा इन पर पशु, पक्षी, यक्ष, किन्नर, पेड़पौधे आदि का चित्रण रहता था। लोकप्रिय वस्त्रों में ऊनी, रेशमी, पटुआ, ताड़ के पत्रों से बने सूती वस्त्र तथा अर्कतुल के रेशे से बने वस्त्रों के नाम सर्वोपरि हैं। फर के उत्कृष्ट वस्त्र, बकरी के बालों से बने वस्त्र, नीले सूत से बने वस्त्र, साधारण सूत के बने तांत पट्ट, मलय वस्त्र, कलकल, मलमल, रेशम, देशराग, आमिल, जग्गल, फालिम आदि वस्त्रों की कई किस्में थीं। जूट के रेशों से रस्सी बुनी जाती थी।१२। सूती वस्त्र - आगम युग में वस्त्र निर्माण के लिए कपास का उपयोग सर्वाधिक होता था। बृहत्कल्पभाष्य में सूती कपड़ा बनाने की विधि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि 'सेडुग' (कपास) को पहले बीजरहित किया जाता था, तत्पश्चात् उसकी धुनाई की जाती थी और स्वच्छ रूई तैयार की जाती थी।१३ इसके बाद सूत को फैलाकर ताना बना दिया जाता था, फिर 'कंडजोली' उपकरण से तन्तुवायशाला में वस्त्र तैयार किया जाता था।१४ बृहत्कल्पभाष्य में स्त्रियों के भी सूत कातने का उल्लेख मिलता है।१५ जातक कथा से भी इस बात की पुष्टि होती है।१६ रेशमी वस्त्र - अपनी निर्माण-विधि की भिन्नता के कारण रेशमी वस्त्रों के कई प्रकारों का वर्णन आगमों में मिलता है। 'आचारांगसूत्र' में रेशमी वस्त्रों को 'भंगिय' कहा गया है।१७ ‘अनुयोगद्वारसूत्र' में अंडों से निर्मित रेशमी वस्त्रों को 'अंडज' और कीड़ों की लार से बने वस्त्रों को 'कीड़ज' कहा गया है।८ । 'आचारांग' में पांच प्रकार के रेशमी वस्त्रों का वर्णन आया है। 'निशीथचूर्णि' में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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