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________________ १२४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ अतृप्ति - कामनापूर्ति या विषय-सुख को जितना भोगा जाता है, व्यक्ति उसका आदी हो जाता है। फिर पाने के लिये नयी कामना की उत्पत्ति होती है। परन्तु भोग से तृप्ति हो जाय और फिर नयी कामना की उत्पत्ति न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। रोगोत्पत्ति - विषय - - सुख में आसक्त व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के साथ अतिरेक करता है, जैसे स्वाद के सुख में आसक्त व्यक्ति भूख से अधिक खाता है, पेट ठूंस-ठूंस कर भरता है, वह न खाने योग्य वस्तु खाता है। सिनेमा देखने के सुख में आसक्त व्यक्ति अपनी नींद और आँखे खराब होने की परवाह नहीं करता है इस प्रकार इन्द्रिय-सुख में आसक्त व्यक्ति अकरणीय - शास्त्रनिन्द्य कार्य करता है। प्रकृति इसे सहन नहीं कर पाती और प्राकृतिक नियमानुसार रोगोत्पत्ति के रूप में उसे दण्ड मिलता है; अर्थात् दण्ड के रूप में रोगोत्पत्ति का दुःख मिलता है। वियोग का दुःख- प्राकृतिक नियमानुसार जिसका संयोग होता है, उसका वियोग अवश्यम्भावी है। कारण, वस्तु परिवर्तनशील है, अतः या तो वह वस्तु नष्ट हो जायेगी अथवा उसके स्वामी, साथी या भोक्ता की मृत्यु के कारण एवं अन्य किसी के कारण से उसे अलग होना पड़ेगा। यह नियम है कि प्राणी जिस वस्तु के संयोग में जितना अधिक सुख मानता हैं, उसे उसके वियोग में उतना ही अधिक दुःख होता है। इस प्रकार संयोगजनित विषय-सुख का अन्त वियोगजनित दुःख में ही होने वाला है। सारांश यह है कि दुनियां का कोई भी दुःख ऐसा नहीं, जिसकी जड़ में विषय-सुख न हो। यह प्राकृतिक नियम है कि सुख भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है। तथ्य तो यह है कि विषय-सुख कामना - उत्पत्ति - पूर्ति तथा फलये सब दुःखमय और दुःखजनक हैं। इसी सुख के कारण राग-द्वेष - मोह उत्पन्न होते हैं, जिनसे जन्म-मरणरूप भवचक्र चलता है और जिसके फलस्वरूप प्राणी अनन्तकाल से दुःखी हो रहा है। अतः कामनात्याग में ही बुद्धिमानी है । * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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