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________________ ११८ : श्रमण, वर्षे ५७, अंक ३-४ / जुलाई - दिसम्बर २००६ या उनके विषय में जानता है, उसके मन में उन वस्तुओं को पाने की कामना उत्पन्न होती है और यदि कामनापूर्ति न हो तो दुःखी होता है। अतः जितनी कामनाएँ उत्पन्न होती हैं, उतना ही दुःख बढ़ता जाता है। यही कारण है कि संसार की समस्त संपत्ति भी किसी एक मनुष्य को दे दी जाय तब भी उसे अभाव का दुःख बना ही रहेगा, तृप्ति नहीं होगी। उस अतृप्ति को दूर कर, सुखी होने के लिए व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने चित्त में कामना उत्पन्न कर व्यर्थ में ही अपने को दुःखी न बनाये। हम अपने भोगोपभोग की वस्तुओं व इच्छाओं को सीमित रखने का दृढ़ संकल्प कर लें। जब तक हम भोगोपभोग की इच्छा का संयम न करेंगे व धन-धान्यादि वस्तुओं के संग्रह को किसी निश्चित सीमा में रखने का व्रत, प्रण नहीं लेगें, तब तक नवीन वस्तुओं की प्राप्ति की कामनाएँ उठ उठ कर हमारे चित्त में अशांति पैदा करती ही रहेंगी और हम दुःखी होते ही रहेंगे । - भोगोपभोग की वस्तुओं एवं इच्छाओं का त्याग करें अतः जिन वस्तुओं का भोग सभी कर रहे हैं उनको घटाएँ व त्यागें । यहसदा स्मरण रहे कि इन्द्रिय सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है। दुनियां में कोई भी दुःख ऐसा नहीं है जो किसी न किसी इन्द्रियजन्य सुख के भोग का परिणाम न हो। इस प्राकृतिक तथ्य का आदर कर हम जितना इन्द्रिय सुख के भोग का तथा कामनाओं व वासनाओं का त्याग करते जायेंगे उतना ही चित्त की व्याकुलता और दुःख से दूर रहेंगे। संसार के सभी प्राणी सुख चाहते हैं। उनका प्रत्येक प्रयत्न सुख के लिये होता है। मानव भी एक प्राणी है और वह बचपन से ही सुख - प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है। वह सोचता है कि मेरी अमुक-अमुक कामनाएँ पूरी हो जायेंगी तो मैं सुखी हो जाऊँगा । यथा- एक गरीब व्यक्ति सोचता है कि मैं लखपति हो जाऊँ तो सुखी हो जाऊँगा और वह प्रयत्न करके लखपति बन भी जाता है, परन्तु देखा जाता है कि लखपति हो जाने पर भी वह सुखी नहीं हो पाता। इसी प्रकार लखपति सोचता है कि मैं करोड़पति हो जाऊँ तो सुखी हो जाऊँगा; परन्तु वह करोड़पति हो जाने पर भी सुखी नहीं होता। इसी प्रकार कार, बंगला आदि की कामना पूर्ति को भी ले सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने ही बचपन के जीवन पर दृष्टि डाले तो देखेगा कि उस समय सुखी होने के लिये उसने जो कामनाएँ की थीं, उनमें से अधिकांश पूर्ण हो चुकी हैं; परन्तु उन कामना पूर्तियों से सुख में कोई वृद्धि हुई हो, ऐसा Jain Education International Y For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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