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________________ श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई-दिसम्बर २००६ दुःख का कारण कमी नहीं कामना कन्हैला लाल लोढा आवश्यकताएँ : प्राकृतिक और कृत्रिम दुख: का कारण है आवश्यकताओं की पूर्ति न होना। आवश्यकताएँ दो प्रकार की होती हैं १. प्राकृतिक तथा २. कृत्रिम। प्राकृतिक आवश्यकताएँ वे हैं जो शरीर को टिकाए रखने के लिए आवश्यक हैं, जैसे भूख, प्यास आदि। कृत्रिम आवश्यकताएँ वे हैं जिन्हें मानव स्वयं अपनी इच्छा से उत्पन्न करता है। इनकी पहचान यह है कि इनकी पूर्ति के बिना भी मानव जीवित रह सकता है जैसे- टेलीविजन, टेलीफोन आदि। सुख-दुःख/ धनवानों व गरीबों के सन्दर्भ में इस युग में मानव की प्राकृतिक आवश्यकताएँ तो अल्प श्रम से ही पूरी हो जाती हैं। अत: वर्तमान में मानव के दुःख का मुख्य कारण प्राकृतिक आवश्यकताएँ नहीं हैं प्रत्युत कृत्रिम आवश्यकताएँ हैं। आज से दो सौ वर्ष पूर्व कृत्रिम आवश्यकताओं की वस्तुएँ रेडियो, टेलीविजन आदि न होने पर भी मानव अपना जीवन आनन्द पूर्वक व्यतीत करते थे, इनके न होने से उन्हें कोई दुःख नहीं था। इससे यह परिणाम निकलता है कि कृत्रिम आवश्यकताओं के अभाव से दुःख होता तो जिस व्यक्ति को वस्तुओं की जितनी अधिक कमी है उसे उतना ही अधिक दुःख होना चाहिए। संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं या धन का स्वामी कोई भी व्यक्ति नहीं हो सकता। अत: संसार में प्रत्येक व्यक्ति को अनगिनत वस्तुओं की कमी रहती ही है, फलतः, उन्हें असीम दु:ख होना चाहिए। यथा धनवानों की अपेक्षा गरीबों व साधुओं के यहां वस्तुओं का अधिक अभाव होता है, अतः अपेक्षाकृत उन्हें अधिक दु:खी होना चाहिए। परन्तु देखा यह जाता हैं कि अधिकांश धनवानों का जीवन गरीबों की अपेक्षा अधिक तनावपूर्ण है। वे अधिक पीड़ित और दुःखी हैं तथा धनवानों की अपेक्षा साधु अधिक दुःखी । नहीं, प्रत्युत अधिक सुखी हैं। तात्पर्य यह है कि दुःखों की उत्पत्ति का सम्बन्ध वस्तुओं के अभाव से नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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