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________________ हिन्दू परम्परा में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा : १०१ पुरुषार्थवाद पुरुषार्थवादियों का मत है कि इष्टानिष्ट की प्राप्ति बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने से ही होती है। भाग्य अवथा दैव नाम की कोई वस्तु नहीं है। पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न ही सब कुछ है। प्राणी अपनी बुद्धि एवं शक्ति के अनुसार जैसा प्रयत्न करता है वैसा ही फल पाता है। किसी भी कार्य की सफलता-असफलता प्राणी के पुरुषार्थ पर ही निर्भर होती है। पुरुषार्थवाद का आधार स्वतंत्रतावाद किंवा इच्छा-स्वातन्त्र्य है। वैशेषिक दर्शन में चौबीस गुण माने गये हैं उनमें एक अदृष्ट भी है। यह गुण संस्कार से पृथक है और धर्म-अधर्म ये दो उसके भेद हैं। इस तरह न्याय दर्शन में धर्म-अधर्म का समावेश संस्कार में किया गया है। उन्हीं धर्म-अधर्म को वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट के अन्तर्गत लिया गया है। राग आदि दोषों से संस्कार होता है, संस्कार से जन्म, जन्म से राग आदि दोष और उन दोषों से पन: संस्कार उत्पन्न होते हैं। इस तरह जीवों की संसार परम्परा बीजांकुरवत् अनादि है। __सांख्य-योगदर्शन के अभिमतानुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों से क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है। क्लिष्टवृत्ति से धर्माधर्म रूपी संस्कार पैदा होता है। संस्कार को आशय, वासना, कर्म और अपूर्व भी कहा जाता हैं, क्लेश और संस्कार को इस वर्णन में बीजांकुरवत् अनादि माना मीमांसा दर्शन का मत है कि मानव द्वारा किया जाने वाला यज्ञ आदि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करता है और वह अपूर्व ही यज्ञ आदि जितने भी अनुष्ठान किये जाते हैं उन सभी कर्मों का फल देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वेद द्वारा प्ररूपित कर्म से उत्पन्न होने वाली योग्यता या शक्ति का नाम अपूर्व है। वहाँ पर अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य को अपूर्व नहीं कहा है।१२ वेदान्त दर्शन का मन्तव्य है कि अनादि अविद्या या माया ही विश्व वैचित्र्य का कारण है।१३ ईश्वर स्वयं मायाजन्य है। वह कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है, इसलिए फलप्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है।१४ आरण्यक और विशेषत: उपनिषद्-काल में देवों और यज्ञ-कर्मों की महत्ता का अन्त निकट आने लगा। इस युग में ऐसे विचार उत्पन्न होने लगे जिनका संहिता व ब्राह्मण-ग्रन्थों में अभाव था। इन विचारों में कर्म अर्थात् अदृष्टविषयक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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