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________________ विरहविधुरिताङ्गो दीर्घनिःश्वासखिन्नो । अभिलषित-पदार्थासाधनोद्विग्नचित्तः ||२४८।। गुजराती अर्थ :- त्यारे सकलपीडारहित, स्वस्थदेहवाळो, किसलयथी बनावेली शय्यामां बेठेलो, विरहथी पीडित अङ्गवाळो, दीर्घनिःश्वासोवडे खेद पामेलो, इच्छित पदार्थने नहीं साधी शकवाथी उद्विग्नचित्तवाळो थयो। हिन्दी अनुवाद :- उस समय सकलपीड़ा रहित, स्वस्थदेहवाला, किसलय से बनी शय्या में बैठा-हुआ, विरह से पीड़ित अङ्गवाला, दीर्घनि:श्वास से खेद पाता हुआ, इच्छित पदार्थ की अप्राप्ति से उद्विग्नचित्तवाला हो गया। गाहा : साहु-धणेसर-विरइय-सुबोह-गाहा-समूह- रम्माए। रागग्गि-दोस-विसहर-पसमण-जल-मंत-भूयाए ।। २४९।। संस्कृत छाया : साधुधनेश्वरविरचित-सुबोधगाथा-समूह-रम्यायाः।। रागाग्नि-द्वेष-विषधर-प्रशमन-जलमन्त्रभूतायाः ||२४९।। गुजराती अर्थ :- साधु धनेश्वर वड़े विरचित साराबोधवाळी, गाथाना समूह थी रम्य, रागरूपि आग अने द्वेष रूपि सर्पने शांत करवामा जल रूपी मन्त्र समान - हिन्दी अनुवाद :- साधु धनेश्वर द्वारा विरचित, समीचीनबोधवाली, गाथासमूह से रम्य, राग रूपी अग्नि और द्वेष रूप सर्प को शांत करने में जल रूप मन्त्र समानगाहा : एसोवि परिसमप्पइ पासग-परिमोयाणोत्ति नामेण। सुरसुंदरि-नामाए कहाए तुरिओ परिच्छेओ ।। २५०।। संस्कृत छाया : एषोऽपि परिसमाप्यते पाशक-परिमोचन इति नाम्ना। सुरसुन्दरीनाम्न्याः कथायाः चतुर्थः परिच्छेदः।।२५०।। गुजराती अर्थ :- पाशथी छोडाववा रूप सुरसुन्दरी नामनी कथानो आ चोथो परिच्छेद पण समाप्त कराय छे।। हिन्दी अनुवाद :- बन्धन से मुक्ति दिलाने वाली सुरसुन्दरी नाम की कथा का चतुर्थ परिच्छेद समाप्त होता है। ।।चतुर्थः परिच्छेदः समाप्तः।।छ।। १०००।। 218 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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