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________________ संस्कृत छाया : ततः सलज्ज-वदना भणिता च मया न हे पुत्रि! तव युक्तम् । ईदृशमाचरितुं जननी-जनकादीनां दुःखजनकम् ।। १८०।। गुजराती अर्थ :- (मने जोई) ते लज्जायुक्त मुखवाळी थई अने मे कनकमालाने कहयु के हे पुत्री! माता-पिताने दुःखजनक आवाप्रकारनुं आचरण तने योग्य नथी। हिन्दी अनुवाद :- (मुझे देखकर) कनकमाला लज्जित हो गई तथा मैने उससे कहा, हे पुत्री! माता-पिता को दुःख पहुंचानेवाला ऐसा कार्य करना तुझे योग्य नही है। गाहा : तत्तो य तीइ भणियं अम्बे! अम्हारिसाण किं अन्नं । एवं हि गए काउं जुत्तं मरणं पमोत्तूण? ।।१८१।। संस्कृत छाया : ततश्च तया भणितं हे अम्ब! अस्मादृशानां किमन्यत् ।। ___एवं हि गते कर्तुं युक्तं मरणं प्रमुच्य? ||१८१।। गुजराती अर्थ :- त्यारपछी तेणे का, हे माता! आवु असह्य दुःख आवे त्यारे अमारा जेवाने मरण सिवाय बीजो उपाय शुं होई शके? हिन्दी अनुवाद :- अतः उसने कहा, हे माता! ऐसा असह्य दुःख आने पर मेरे लिए मरण के अलावा कौन सा उपाय हो सकता है? । गाहा : जओ वरि मरणं मा विरहो विरहो अइदूसहोऽम्ह पडिहाइ । वरि एक्कं चिय मरणं जेण समप्पंति दुक्खाई ।। १८२।। संस्कृत छाया :- यतः वरं मरणं मा विरहो, विरहो-अतिदुस्सहोस्माकं प्रतिभाति। वरमेकं चैव मरणं येन समाप्यन्ते दुःखानि ।।१८२।। गुजराती अर्थ :- प्रियतमनो विरह सहवो अति दुःसह लागे छे 'मरण श्रेष्ठ छे विरह नहीं', कारण के एक मरणवड़े ज बधा दुःखोनो अंत आवी जाय छे। हिन्दी अनुवाद :- प्रियतम के विरह को सहना अति दुःस्सह है। उससे तो मरण ही श्रेष्ठ है विरह-नहीं, क्योंकि एक मृत्यु द्वारा ही सभी दु:खों का अंत हो जाता है। गाहा : तत्तो य मए तीसे कहिओ सव्वोवि पुव्व-वुत्तो। भणिया य पुत्ति! संपइ किं तुह पडिहासए काउं? ।।१८३।। 195 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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