________________
संस्कृत छाया :
अथवा न कोऽपि दोषः प्रभुपरवश-स्थितस्य तातस्य।
श्रूयते जने प्रकटं कष्टः खलु भृत्यभाव इति।।१५९|| गुजराती अर्थ :- अथवा स्वामी ने परवश थयेला पितानो कोइ पण दोष नथी। लोकमां पण संभळाय छे के, सेवकभाव खरेखर दुःखदायक होय छे। हिन्दी अनुवाद :- अथवा स्वामी से अधीन पिताजी का कुछ भी दोष नहीं है, लोक में भी सुनाई देता है कि सेवक भाव निश्चय ही दुःखदायक है। गाहा :जइवि हु विजियाणंगो रूवेणं जइवि संपया-कलिओ। जइवि हु उत्तम-वंसो सक्खा सक्कंदणो जइवि।।१६०।। तहवि न भावइ अन्नो पुरिसो तं हियय-वल्लहं मोत्तं । जइ एस निच्छओ हियय! तुज्झ ता किं विलंबेण? ।।१६१।। युग्मम्।। सस्कृत छाया :यद्यपि खलु विजितानङ्गो रूपेण यद्यपि संपत्-कलितः। यद्यपि खलु उत्तमवंशः साक्षाद् यद्यपि ।।१६०।। तथापि न रोचते अन्यः पुरुषः तं हृदयवल्लभं मुक्त्वा । यदि एष निश्चयो हे हृदय! तव तस्मात् किं विलम्बेन? ||१६१।। युग्मम् ।। गुजराती अर्थ :- जो के रूप बड़े कामदेवने जीतनाट होय, सर्व सम्पत्तिथीसम्पूर्ण होय, जो के उत्तमवंशमां उत्पन्न थयेलो होय, के साक्षात् इन्द्रतुल्य होय तो पण ते हृदयवल्लभने छोडीने अन्य पुरुष तरफ दृष्टि पण नहीं करू हे हृदय! जो तारो आ ज निश्चय छे तो शा माटे विलम्ब करे छे? हिन्दी अनुवाद :- यदि रूप से कामदेव को जीतनेवाला हो, या सर्वसम्पत्ति से पूर्ण हो, अथवा उत्तमवंश में उत्पन्न हुआ हो, या तो साक्षाद् इन्द्र तुल्य हो तो भी मै तो हृदयवल्लभ को छोड़कर अन्य पुरुष की ओर दृष्टि भी नहीं करूंगी। हे हृदय! तेरा यह निश्चय है तो किसलिए विलम्ब करता है? गाहा :
एसो सो पत्थावो अइदुलहो पाविओत्ति कलिऊणं।
उज्जमविचिंतियत्थे होउ अविग्घेण संपत्ती ।।१६२।। संस्कृत छाया :
एष स प्रस्तावोतिदुर्लभः प्राप्त इति कलित्वा। उद्यमविचितिार्थे भवतु अविघ्नेन सम्प्राप्तिः ।।१६२।।
188
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org