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________________ संस्कृत छाया : गत्वा चतुर्विध- देवनिकायं निपतन्तं दृष्ट्वा चित्रकूटे | सविशेष- हर्षित-मना विकसित-मुख-पङ्कजो राजा ||६५ ।। शीघ्रतरं बहुजनपरिवृत्तः प्रयत्नेन । सुरकृत- - केवली - महिमानं स्तूयमानं दिव्यनारीभिः ।।६६।। दृष्ट्वा मुनिवरं तं कृत्वा प्रदक्षिणां च त्रिःकृत्वः । बहुमानवश- समुत्थित रोमाञ्च चयाञ्चित-शरीरः ।।६७।। भूमितललोलितमुकुटं पंचागं कृत्वा तदा प्रणिपातम् । प्रहर्षगलन्नयनोऽथ एवं स्तोतुमारब्धः ||६८।। चतसृभिः कलापकम् गुजराती अर्थ :- चित्रकूट उपर चारे प्रकारना देवसमूहने आवता जोईने, सविशेष हर्षितमन वाळो अने विकसित मुखकमलवाळी घणा लोकोथी परिवरेलो राजा देवोट करेला केवलीना महिमाने अने देवीओवड़े स्तुति करता जोइने जल्दी थी ते मुनिवरने त्रण प्रदक्षिणा करीने महुमानपूर्वक अत्यंत रोमाञ्च युक्त देहवाळी, भूमितल उपर स्पर्श करेला मुकुटवाळोपंचांग प्रणिप्रात करीने खुश थयेला हर्षाश्रु सहित आ प्रमाणे स्तुति करवा लाग्यो । हिन्दी अनुवाद :- वहाँ चित्रकूट पर्वत के ऊपर चारो प्रकार के देव - समूह को आतं हुए व देविओं द्वारा स्तुति कराते हुए और देवों द्वारा किये हुए - " केवली की महिमा देखकर, बहुजन से परिवृत, सविशेष हर्षितमनवाला एवं विकसित मुखकमलवाला राजा शीघ्र ही मुनिवर को तीन प्रदक्षिणा देकर, बहुमानयुक्त, अतिरोमाञ्चित देहवाला - भूमितल पर स्पर्शित मुकुट द्वारा पंचांग प्रणिपात करके हर्षाश्रु - सहित इस प्रकार स्तुति करने लगा। गाहा : संस्कृत छाया : - जय जय जीव- दया- वर! वोच्छिन्न- भव- निबंधण ! मुनि स्तुति सुक्क- ज्झाणेण दड्ढ - कम्म वण! | Jain Education International जाइ- जरा - मरण- दुक्ख - हर ! ।। ६९ ।। जय जय जीव दयापर ! शुक्लध्यानेन दग्धकर्मवन! | व्युच्छिन्न- भवनिबन्धन! जाति-जरा-मरण-दुःखहर! ।।६९।। गुजराती अर्थ :- शुक्लध्यानवड़े कर्म ने बालनार, भवना बंधनने छेदी नाखनार, जन्म, जरा, मरणना दुःखने हरनार हे जीव दयापर ! आप जय पामो जयपामो । 157 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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