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________________ महावीर कालीन मत-मतान्तर : पुनर्निरीक्षण : ६९ जुलते हैं। जिसके अनुसार आत्मा प्रकृति से अलिप्त है, फिर भी उसे निश्चित जन्म लेने पड़ते हैं और उसके बाद वह अपने आप मुक्त हो जाती है। यह कल्पना आज भी हिन्दू समाज में पाई जाती है कि चौरासी लाख योनियों में जन्म लेकर प्राणी मोक्ष को प्राप्त होता है। यह संसारशुद्धिवाद, अक्रियावाद से बहुत भिन्न नहीं दीख पड़ता है। (३) अजितकेसकम्बलवाद, अजितकेसकम्बल के द्वारा चलाए गए उच्छेदवाद का ही नाम है। यह वाद चार्वाकों की तरह पूर्णतया नास्तिकवाद था। आत्मा चार महाभूतों से उत्पन्न होती है और मरने के बाद पुनः चार महाभूतों में जा मिलती है। (४) पकुधकच्चायन के अन्योन्यवाद को सत्तकायवाद भी कहा गया। उसके द्वारा मान्य सात पदार्थ -पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुःख और आत्मा, न बनते हैं, न बनाए जाते हैं, स्तम्भ की तरह अचल हैं। यह वाद 'सस्सतवाद' के निकट है और विशेषिक दर्शन का मूल भी प्रतीत होता है। (५) निगण्ठनाथपुत्त चातुर्यामसंवरवादी के अनुसार-चार याम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह थे, जिनका उपदेश पार्श्वमुनि ने किया था। महावीर स्वामी ने इसमें ब्रह्मचर्य जोड़ा था अर्थात् उस काल में निग्रन्थों में चार यामों का ही महत्त्व था। (६) सञ्जयबेलट्ठपुत्त-वाद विक्षेपवाद था, जिसकी किसी भी बात पर कोई निश्चित धारणा नहीं थी। इसके अतिरिक्त भी बौद्ध साहित्य आत्मवादी श्रमणों का उल्लेख करते हैं, . जो आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में भिन्न मत रखते हैं, जैसे शाश्वतवाद, अर्थात् आत्मा और जगत् शाश्वत है, और उच्छेदवाद, अर्थात् शरीर के नष्ट होने के बाद आत्मा भी नष्ट हो जाती है। उपरोक्त ६ वाद भी आत्मवादी ही प्रतीत होते हैं। शरीर और आत्मा के शाश्वत-अशाश्वत आदि मानने में ऊहापोह में पड़े रहने वाले अनावश्यकवाद का उल्लेख चूलमांलुक्यपुत्तसुत्तर में प्राप्त होता है। यद्यपि इन स्थानों पर इन्हें आत्मवाद या अनावश्यकवाद नाम नहीं दिया गया है। इसी प्रकार अंगुत्तर निकाय के तिकनिपात (सुत्त संख्या ६१) और मज्झिम निकाय के देववह सुत्त (सुत्त संख्या - १०१) में ईश्वर का उल्लेख आया है। ईश्वर को मानने वाले वर्ग के मत को विद्वानों ने ईश्वरवाद का नाम दिया, जिसके अनुसार प्राणी जो कुछ सुख, दुःख या उपेक्षा भुगतता है, वह सब ईश्वर द्वारा निर्मित है (इस्सरनिम्मान हेतु)। ____ कस्सप सिंहनाद सुत्त१ में बुद्ध के समकालीन आजीवक, निगंथ, मुंडसावक, जटिलक, परिब्बाजक, मगन्दिक, टेडन्दिक, अविरुद्धक, गोतमक, देवधम्मक का उल्लेख भी प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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