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सम्पादकीय
श्रमण जनवरी-मार्च २००६ का अंक सम्माननीय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है | श्रमण के पूर्व अंक (जुलाई-दिसम्बर २००५ ) में हमनें जैन धर्म के मूर्धन्य मनीषी प्रो० सागरमल जैन द्वारा लिखित कुछ महत्त्वपूर्ण लेखों को स्थान दिया था। प्रस्तुत अंक में हमने जैन साहित्य, दर्शन, आचार, इतिहास एवं कला से सम्बद्ध आलेखों को स्थान दिया है। इस अंक के हिन्दी खण्ड में जैन साहित्य, दर्शन, आचार, इतिहास एवं संस्कृति पर आधारित कतिपय महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किये गये हैं। अंग्रेजी खण्ड में जैन एवं बौद्ध दर्शन (तुलनात्मक) एवं कला - इतिहास से सम्बद्ध आलेख प्रस्तुत हैं। सभी आलेख विषयवस्तु, प्रस्तुति एवं भाषा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं| हमारा प्रयास यही रहता है कि श्रमण का प्रत्येक अंक पिछले अंकों की तुलना में हर दृष्टि से बेहतर हो और उसमें प्रकाशित सभी आलेख शुद्ध रूप में मुद्रित हों।
इस अंक के साथ हम अपने सम्माननीय पाठकों के लिये जैन कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखने वाली प्राकृत भाषा में निबद्ध श्रीमद्धनेश्वर सूरि विरचित सुरसुंदरीचरिअं (संस्कृत च्छाया सहित गुजराती एवं हिन्दी अनुवाद) का चतुर्थ परिच्छेद कतिपय कारणों से प्रकाशित नही कर पा रहे हैं, आशा है अगले अंक में हम अपने पाठकों को इस अद्वितीय कथारस में निमज्जित कर सकेंगे।
सुधी पाठकों से निवेदन है कि आपकी आलोचनायें ही हमें पूर्णता प्रदान करती हैं। एतदर्थ आप अपने अमूल्य विचारों/ आलोचनाओं से हमें वंचित न करें, उनसे हमें सदा अवगत कराते रहें ताकि आगामी अंकों में हम अपनी कमियां सुधार सकें।
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सम्पादक
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