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________________ २८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ द्रष्टव्य-'जिनवाणी', सितम्बर-अक्टूबर १९९९ पृष्ठ १८-१९ पर लेखक का लेख-'उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण और उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना'।) २. पुण्य और पाप के सम्बन्ध में 'जैन सिद्धान्त दीपिका' में विशेष प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि 'पुण्य' धर्म का अविनाभावी है-'तच्च धर्माविनाभावि' (४.१३) अर्थात् धर्म के बिना पुण्य नहीं होता है। स्वोपज्ञवृत्ति में स्पष्ट किया गया है कि पुण्य कर्म का बन्ध एक मात्र सत्प्रवृत्ति के द्वारा होता है और सत्प्रवृत्ति मोक्ष का उपाय होने से अवश्य धर्म है। अत: जिस प्रकार धान्य के बिना तुष उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार धर्म के बिना पुण्य नहीं होता। यहाँ पर प्रश्न खड़ा होता है कि मिथ्यात्वी जीव धर्म की अराधना नहीं कर सकता है तब वह पुण्य का बन्ध कैसे करेगा? जैन सिद्धान्त-दीपिका में आचार्य श्री तुलसी ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि मिथ्यात्वी भी मोक्षमार्ग के देश-आराधक होते हैं। यदि ऐसा न हो तो उनके निर्जराधर्म ही न हो एवं वे कभी सम्यक्त्वी ही न बन सकेंगे। आचार्यश्री ने शुभ कर्म को पुण्य (शुभ कर्म पुण्यम् ४. १२) कहते हुए जिस निमित्त से पुण्य का बन्ध होता है उसे भी उपचार से पुण्य कहा है। इस प्रकार उपचार से अन्न, पान, लयन, शयन, वस्त्र, मन, वचन, शरीर एवं नमस्कार के आधार पर ९ पुण्य होता हैं। ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों को पाप कहा गया है। उपचार से पाप के हेतु प्राणातिपात आदि को भी पाप माना गया है, जिसके १८ भेद प्रसिद्ध हैं। ३. जैन सिद्धान्त-दीपिका के चतुर्थ प्रकाश में ही शुभ एवं अशुभ योग की चर्चा करते हुए अचार्यश्री ने शुभयोग को सत्प्रवृत्ति एवं अशुभयोग को असत्प्रवृत्ति कहा है। शुभ एवं अशुभयोग से क्रमश: शुभकर्म-पुद्गलों एवं अशुभ कर्मपुद्गलों का आस्रव होता है। इस सामान्य नियम का उल्लेख करने के साथ ही एक विशेष उल्लेखनीय सूत्र उपनिबद्ध किया गया है यत्र शुभयोगस्तत्र नियमेन निर्जरा (दीपिका ४. २७) अर्थात् जहाँ शुभयोग होता है वहाँ नियम से निर्जरा होती है। आचार्यश्री ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शुभयोग कर्मबन्ध का हेतु होने से आस्रव के अन्तर्गत परिगणित है, किन्तु वह नियम से अशुभ कर्मों को तोड़ने वाला है, इसलिए निर्जरा का कारण भी है। नाना द्रव्यों से निर्मित औषधि जिस प्रकार रोग का शोषण एवं शरीर का पोषण- दोनों कार्यों को सम्पन्न करती है उसी प्रकार शुभयोग से पुण्यकर्म का बन्ध एवं अशुभकर्मों का क्षय दोनों कार्य सम्पन्न होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि में आचार्यश्री ने उत्तराध्ययन सूत्र से एक उद्धरण भी दिया है, यथा- वंदणा एवं भंते! जीवे किं जणयइ? गोयमा! वंदणएणं नीयागोयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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