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________________ प्राकृत कथा - साहित्य में सांस्कृतिक चेतना : और संस्कृतिसिक्त साहित्य की सरसता से सिक्त होने का अवसर मिल जाने से गुरुसम्मित वाणी जैसी प्राकृत-कथाएँ कान्तासम्मित वाणी में परिवर्त्तित होकर ततोऽधिक व्यापक और प्रभावक बन गईं और इस प्रकार, संकलन की प्रवृत्ति सर्जना - वृत्ति में परिणत हुई । विषय निरूपण की सशक्तता के लिए सपाट कथाओं में अनेक घटनाओं और वृत्तान्तों का संयोजन किया गया, उनमें मानव की जिजीविषा और संघर्ष के आघात - प्रत्याघात एवं प्रगति की अदम्य आन्तरिक आकांक्षाओं के उत्थान - पतन का समावेश किया गया; इसके अतिरिक्त उनमें सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में विकृतियाँ उत्पन्न करनेवाली परिस्थितियाँ चित्रित हुईं और उनपर विजय प्राप्ति के उपाय भी निर्दिष्ट हुए । पाण्डित्य के साथसाथ सौन्दर्योन्मेष, रसोच्छल भावावेग, प्रेमविह्वलता, सांस्कृतिक चेतना और लालित्य की भी प्राणप्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार, प्राकृत-कथाएँ पुनर्मूल्यांकित होकर आख्यान-साहित्य के समारम्भ का मूल कल्प बनीं और उनका लक्ष्य हुआकमल से मानव की मुक्ति और जीवन की उदात्तता के बल पर ईश्वरत्व में उनकी चरम परिणति या मोक्ष की उपलब्धि | ७ इस प्रकार, स्पष्ट है कि प्राकृत - कथासाहित्य की मूलधारा आगमिक कथाओं के उद्गत होकर समकालीन विभिन्न प्राकृतेतर कथाओं को संचित- समेकित करती हुई पन्द्रहवीं - सोलहवीं शती तक अखण्ड रूप से प्रवाहित होती रहीं। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने उचित ही लिखा है कि आगम-साहित्य प्राकृत कथा - साहित्य की गंगोत्तरी है। ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा आदि अंग तथा राजप्रश्नीय, कल्पिका, कल्पावतंसिका आदि उपांग प्राकृत-कथा - साहित्य के सुमेरुशिखर हैं। उपर्युक्त ऊहापोह से यह निष्कर्ष स्थापित होता है कि प्राकृत - साहित्य की विभिन्न विधाओं में कथा - साहित्य का ऊर्जस्वल महत्त्व है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि प्राकृत कथा - साहित्य ने प्राकृत काव्यों को अपदस्थ किया है। इसलिए कि कथा - साहित्य में यथार्थता का जो सातत्य है, उनका निर्वाह काव्य - साहित्य में प्रायः कम पाया जाता है । यद्यपि, अस्वाभाविक आकस्मिकता और अतिनाटकीयता से प्राचीन प्राकृत कथा - साहित्य भी मुक्त नहीं है। युगीनता के अनुकूल कथा - साहित्य के शिल्प और प्रवृत्ति में अन्तर अस्वाभाविक नहीं। घटनाओं और चरित्रों के समानान्तर विकास का विनियोग प्राकृत-कथाकार अच्छी तरह जानते थे। सांस्कृतिक चेतना की समरसता और धार्मिक सूत्र की एकतानता तथा उपमा और दृष्टान्तों की एकरस परम्परा के बावजूद प्राकृत-कथाओं की रोचकता और रुचिरता से इनकार नहीं किया जा सकता। सांस्कृतिक चेतना के प्रवाह के साथ श्रेष्ठ चरित्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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