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१२२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
गणधर गौतम देख नियति का खेल निराला हुए चकित, जिज्ञासा भर, प्रश्न कर डाला ॥१०॥ भगवन! क्या लीला है, यह है कैसा नाता मात् वत्सला सम विह्वल है ब्राह्मण माता ।।११।। रोमांचित, बेसुध बुध, क्या यह सोच रही है देवानुप्रिये! आप में किसको खोज रही है ॥१२।। वर्धमान ने चक्षु बन्द कर क्षण भर आँका भगवत्ता का दृश्य पटल प्रज्ञा से 'झाँका ॥१३॥ विस्मित हो किंचित् मुस्काय रहस ये खोले अन्तर में कर मातृ नमन, प्रकट यह बोले ॥१४॥ "गौतम! यह देवानन्दा है मेरी माता मैंने इसके मातृ-उदर से जन्म लिया था' ॥१५।। यह कह भगवन मौन समाधी लीन हो गए स्तब्ध पार्षद, सभी विस्मयाधीन हो गए ॥१६॥ गौतम बूझ सके न खुद यह गूढ़ पहेली बोले माँ से - “क्षमा, रहस यह खोलो देवी' |१७|| अन्तर पीड़ा-क्षीण धात् सकुचाई क्षण भर वीर प्रभु की स्मिति लख संप्रेषित अनन्त बल ।।१८।। मुखर हुई देवानन्दा - “भन्ते! नारी अबला है, उसे श्रेष्ठि सामन्तों ने हर रोज छला है ॥१९॥ मैं ब्राह्मण पुत्री, पति मेरे विज्ञ पुरोहित जैसे ही माँ बनी खुशी भी हुई तिरोहित ॥२०॥ उस बयाईसवीं रात लाल का हरण हुआ था बहुत रोई, भटकी, छाती पर वज्र सहा था ॥२१॥
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