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१२० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
व्यवहारसूत्र, निशीथ सूत्र तथा इनके व्याख्या एवं टीका ग्रन्थों में जैन भिक्षुभिक्षुणियों के विधि से सम्बन्धित अनेक नियम प्राप्त होते हैं।
श्रमण परम्परा में विधिशास्त्र से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें प्रकाश में आयी हैं जिनमें जैन श्रमण परम्परा से सम्बन्धित पहली पुस्तक मैकेन्जी की The
Account of the Jaina 1809, इसके पश्चात् बुहलर की Indische Sekte der Jainas है, आधुनिक काल में भी श्रमण परम्परा पर अनेक पुस्तकें प्रकाश में आयी है 'Contribution to the History of Brahmanical Asceticism'(H.D. Sharma), 'Early Buddhist Monachism' (Sukumar Dutta), 'Early Monastic Buddhism (Nalinaksha Dutta), History of Jain Monachism (S.B. Bhagawat), Jain Monastic Jurisprudence (S.B. Dev) आदि। ये पुस्तकें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें श्रमण परम्परा के आचार सम्बन्धी नियमों का एक सम्यक् चित्र उपस्थित होता है।
इस प्रकार श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले जैन एवं बौद्ध धर्म ग्रन्थों में श्रमण-संघ के लिए प्रतिष्ठापित विधि-व्यवस्था का सम्यक् निरूपण ही हमारी भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा एतद्विषयक स्वीकृत परियोजना का उद्देश्य है। दोनों धर्मों के विधि सम्बन्धी विपुल साहित्य के अध्ययन के पश्चात् यह आवश्यक लगा कि लगभग एक ही काल में विकसित तथा एक से विधि नियमों से सम्बन्धित इन दो महत्त्वपूर्ण श्रमण-संघों के आचारनियमों का तुलनात्मक रूप से विवेचन किया जाये। संदर्भ :
1. Jaina Monastic Jurisprudence, p. 3. २. मूलाचार, १/१४. ३. आचारांग, १/२/५/९०. ४. प्रश्नव्याकरण, १०. ५. दशवैकालिक, ६/१९. ६. डा० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ सं: २८. ७. उत्तराध्ययन, २६/८..५३. ८. वृहत्कल्पभाष्य, भाग-४, ४१२८-४५.
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