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जैन श्रमण संघ में विधि शास्त्र का विकास : ११७
उत्तराध्ययन में जैन 'श्रमण-संघ' की दिनचर्या सम्बन्धी नियमों का विस्तार से वर्णन किया गया है। मुनि की दिनचर्या के विधान के लिए दिन एवं रात्रि को चार-चार प्रहरों में बांटा गया। उत्तराध्ययन के अनुसार प्रथम प्रहर में आवश्यककत स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में भिक्षा व आहार-ग्रहण, चौथे प्रहर में स्वाध्याय का विधान किया गया। इसके अतिरिक्त षट् आवश्यक, प्रतिलेखन, आलोचना, ध्यान, स्वाध्याय, भिक्षा-गवेषणा एवं तपादि दिनचर्या के प्रमुख कृत्य हैं।
जैन श्रमण-संघ के समान बौद्ध श्रमण-संघ की दिनचर्या का कोई क्रमबद्ध वर्णन प्राप्त नहीं होता है। फिर भी बौद्ध श्रमण-संघ के लिए वन्दना, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, भिक्षाचर्या, ध्यान, समाधि आदि दिनचर्या के आवश्यक कृत्य हैं।
प्राचीन आचार्यों को ब्रह्मचर्य-मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का ध्यान था। इसी कारण प्रवज्या का द्वार सबके लिए खुला होने पर भी कुछ अनुपयुक्त व्यक्तियों को उसमें प्रवेश की आज्ञा नही थी। संघ में प्रवेश के समय अर्थात् दीक्षा-काल में ही इसकी सूक्ष्म छानबीन की जाती थी।
जैसे-जैसे संघ का विस्तार बढ़ता गया, इन नियमों की अवहेलना होती गयी और तमाम सतर्कताओं एवं गहरी छानबीन के बावजूद भी अयोग्य व्यक्ति (परुष या स्त्री) संघ में प्रवेश पा जाते थे। सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक छानबीन के उपरान्त भी ब्रह्मचर्य-स्खलन की अर्थात् काम आवेगों में तीव्रता की ऐसी स्थिति में जैनाचार्यों ने सर्वनाश की अपेक्षा अर्द्ध विनाश को भी अपने विधान में रखा। जैन आचार्यों ने श्रमण-श्रमणियों के काम आवेगों पर संयम के लिए अध्ययन, लेखन, वैयावृत्य आदि को प्रोत्साहन दिया ताकि उन्हें इन विषयों पर सोचने का समय ही न मिले साथ ही काम सम्बन्धों में काफी सतर्कता बरतते हुए विशेष परिस्थिति में ही भिक्षुभिक्षुणियों को स्पर्श की अनुमति दी गयी। साध्वी शील मर्यादा में रहे अतएव श्रमणी संघ में प्रर्वतनी, गणावच्छेदिनी, प्रतिहारी आदि पदों की भी व्यवस्था की गयी। भिक्षुणियों की शील की रक्षा के निमित्त आचार के वाह्य नियमों का कितना भी उल्लंघन हो, सब उचित है। संघ का यह स्पष्ट आदेश था कि शील की रक्षा के लिए भिक्षु हिंसा का भी सहारा ले सकता है। अत: इस सन्दर्भ में महाव्रतों की विराधना आदि को भी कुछ अंशों तक उचित माना गया एवं कुछ अपवाद भी स्वीकार किये गये। इस प्रकार जैनाचार्यों ने श्रमणियों के शील-भंग सम्बन्धी प्रत्येक परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए उसके निवारण के लिए अनेक नियम बनाये एवं शील सुरक्षार्थ कभी-कभी व्यवस्थित नियमों में परिवर्तन भी किया।
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