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________________ ११४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ नियमोपनियमों का निर्माण किया है। जैन आगमों के सर्वप्रथम संस्कृत टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्ट कहा है कि जो नियम संयम-साधना में अभिवृद्धि करते हों और असंयम की प्रवृत्ति का विरोध करते हों, वे नियम भले ही किसी के द्वारा निर्मित क्यों न हों, ग्राह्य हैं। किन्तु बाद में इन नियमों में शिथिलता भी दिखाई पड़ती है। नियमों के बार-बार अतिक्रमण होने पर आचार्यों द्वारा उन्हें बदल दिये जाने के संदर्भ में जैन धर्मावलम्बी इस बात को मानने लगे थे कि विधि शास्त्रीय नियमों में जो भी परिवर्तन किये जाएं वो संघ के प्रभावी आचार्यों द्वारा ही किए जाएं । इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि आचार सम्बन्धी नियमों को लेकर ही जैन धर्म में विभिन्न सम्प्रदाय का जन्म हुआ जिनमें श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथ आदि मुख्य रूप से आते हैं। . __ जैन धर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में मतभेद विशेष रूप से उनके नियमों को लेकर है। श्वेताम्बर उन नियमों को नहीं मानते जिन्हें दिगम्बर मानते हैं और दिगम्बर उन नियमों को नहीं मानते जिन्हें श्वेताम्बर मानते हैं। फिर भी कुछ नियमों के पालन में दोनों ही सम्प्रदायों में एकरूपता है। जैन परम्परा में भिक्षु-संघ में प्रवेश पाने के लिए यद्यपि वर्ण एवं जाति को बाधक नहीं माना गया तथापि उसमें कुछ व्यक्तियों को संघ में प्रवेश पाने के अयोग्य माना गया। जैन धर्म में श्रमण-दीक्षा के लिए माता-पिता एवं परिवार के अन्य आश्रित जनों की अनुमति आवश्यक मानी गई है। श्रमण-संघ के दो मूल विभाग हैं: साधु वर्ग व साध्वी वर्ग। संख्या की विशालता को दृष्टि में रखते हुए उन वर्गों को अनेक उपविभागों में विभक्त किया जाता है। समान्यतया एक वर्ग में दो से चार तक साधु होते हैं ताकि साधुसाध्वियों की सुविधानुसार देख-रेख व व्यवस्था की जा सके। यही उनकी संगठनात्मक व्यवस्था है। प्रारम्भ में संघ में दीक्षित होने वाले प्रत्येक नर या नारी को भिक्षु या भिक्षुणी के नाम से जाना जाता था, परन्तु संघ में इनकी संख्या में वृद्धि होने के कारण तथा प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए संघ में क्रमश: कई पदों का सृजन हुआ जैसे- आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, मुनि, प्रवर्तिनी आदि। इन पदों में आचार्य और उपाध्याय के पदों को ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना गया किन्तु ये पद केवल भिक्षु के लिए ही सुरक्षित थे। भिक्षुणी योग्य होने पर भी उच्च पदों पर आसीन नहीं हो सकती थी, तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो बौद्ध भिक्षणी भी उच्च पदों की अधिकारी नहीं थी किन्तु भिक्षुणी का संघ में प्रवेश सम्बन्धी विधि सर्वप्रथम जैन धर्म में ही बनाया गया। संगठनात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न पदों के लिए आवश्यक कर्तव्य तथा अधिकार निश्चित किये गये थे। विभिन्न पदों पर आसीन श्रमण या श्रमणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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