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________________ श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ जनवरी-मार्च २००६ वैदिक ऋषियों का जैन परम्परा में आत्मसातीकरण डॉ० अरुण प्रताप सिंह वैदिक ऋषिगण अपनी विशिष्टता के लिए प्रख्यात रहे हैं। त्याग, तपस्या एवं सर्वलोकमंगलकारी भावना के कारण भारत की प्राय: सभी परम्पराओं - वैदिक एवं श्रमण - में इनको श्रद्धा के साथ स्मरण किया गया है। श्रमण परम्परा के जैन आचार्य प्रारम्भ से ही उदात्त विचारधारा से अनुप्राणित रहे हैं। यही कारण है कि लोक जनमानस में श्रेय मार्ग का जो भी पथिक रहा, उसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और अपने ग्रन्थों में सम्मानजनक स्थान प्रदान किया। यहाँ यह उल्लेख करना अनावश्यक न होगा कि इस प्रक्रिया में जैन आचार्यों ने उन श्रेष्ठ पुरुषों को भी स्थान दिया जिनके आचार-विचार से वे सहमत नहीं थे। उन्होंने अपने ग्रन्थों में वैदिक, बौद्ध, आजीविक एवं विभिन्न धार्मिक क्रिया-विधियों से सम्बन्धित ऋषियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है। प्रस्तुत शोधपत्र में जैन ग्रन्थों में वर्णित वैदिक ऋषियों की जैन परम्परा में आत्मसातीकरण की प्रक्रिया की समीक्षा की गई है। वैदिक ऋषियों के सन्दर्भ हमें जैन परम्परा के प्राचीनतम अंग साहित्य से ही मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में कुछ वैदिक ऋषियों को महापुरिसा (महापुरुष), महारिसी (महर्षि) एवं तवोधणा (तप रूपी धन से सम्पन्न) कहकर सिद्धि प्राप्त करने वाला बताया गया है। "आहंसु महापुरिसा पुव्विं तत्ततवोधणां। उदएण सिद्धिमावण्णा तत्थ मंदे विसीयते।।"१ यहाँ उल्लेखनीय है कि सूत्रकृतांगकार ने औपनिषदिक, सांख्य, चार्वाक एवं बौद्धों के मत का खण्डन किया है किन्तु तप-त्याग के मार्ग का अनुसरण करने वाले वैदिक ऋषियों की अभ्यर्थना की है। यह कहा गया है कि विदेह नरेश नमिराज ने आहार छोड़कर और रामउत्त (रामपुत्र) ने आहार का उपभोग करके; * रीडर, प्रा०३० विभाग, एस०बी०पी०जी० कालेज, सिकन्दरपुर, बलिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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