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________________ ६० समझ लेना मूर्खता ही होगी कि मोक्ष, मुक्ति या निर्वाण कोई भावात्मक तथ्य नहीं है। व्यक्ति में जो अनन्त और असीम को पाने की ललक है। विकल्पों और विचारों के संकुल इस संसार से निर्विचार और निर्विकल्प में जाने की जो अभीप्सा है, प्यास है वही मोक्ष या निर्वाण की सार्थकता है। मनुष्य में अपनी चैतसिक क्षुद्रताओं, वासनाओं और विकारों से ऊपर उठकर आत्मिक रूप से स्वस्थ होने की जो एक प्रेरणा है, विभाव से स्वभाव में आने की जो सतत प्रयत्नशीलता हैये सभी इस तथ्य की सूचक हैं कि मोक्ष अभाव रूप न होकर एक भावात्मक अवस्था है। बीमारी का अभाव स्वास्थ्य की भावात्मक सत्ता को सिद्ध करता है। मोक्ष आत्मपूर्णता है, आत्म-साक्षात्कार है। सीमा को जानने में सीमापारी का अवबोध आवश्यक है। जब चेतना विकल्पों, विचारों, इच्छाओं, वासनाओं और आकांक्षाओं के उस पार चली जाती है, जब चेतना मैं और मेरे के क्षुद्र घेरे को तोड़कर असीम और अनन्त में निमज्जन कर लेती है तो वह मोक्ष या निर्वाण को उपलब्ध हो जाती है, वह स्वयं असीम और अनन्त हो जाती है। मुक्ति या निर्वाण अन्य कुछ नहीं है, वह सीमाओं का, आवरणों का, ममता के घेरे का टूट जाना है। अत: मोक्ष या निर्वाण एक भावात्मक सत्ता भी है। यह सत्य है कि उसे वाच्य नहीं बनाया जा सकता किन्तु उसे अनुभूत तो किया ही जा सकता है, वह चाहे अभिलाप्य न हो लेकिन अनुभूति तो है ही। हमें यह भी ध्यान रखना है कि निर्वाण या मोक्ष कोई ऐसी वस्तु भी नहीं है, जिसकी अनुभूति इस जीवन से परे किसी अन्य लोक और अन्य जीवन में सम्भव होती हो, उसकी अनुभूति तो इसी जीवन में और इसी लोक में करनी होती है। वस्तुत: साधना पद्धतियों के रूपों में या धर्मों में वैविध्य हो सकता है, किन्तु उन सब में मोक्ष रूपी साध्यगत समरूपता भी है। जिस प्रकार सभी नदियाँ समुद्र की ओर गतिशील होती हैं उसी प्रकार सभी धर्म मोक्ष या परमात्म-दशा की ओर गतिशील हैं। जिस प्रकार बीमारियाँ भिन्न होती हैं और उनके कारण उनकी चिकित्सा विधि, औषधि और पथ्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु उनके परिणाम स्वरूप उपलब्ध स्वास्थ्य एक ही रूप होता है। जिस प्रकार बीमारियों में तरतमता होती है, विभिन्नताएँ होती हैं, उसी प्रकार चैतसिक विकृतियों में भी उनके राग, द्वेष, मोह और कषाय (क्लेश) रूप कारकों की अपेक्षा भिन्नता होती है। किन्तु साधना पद्धतियों में रही हुई भिन्नता, उनके साध्य की भिन्नता का आधार नहीं है, मोक्ष या निर्वाण तो एक रूप ही होता है। वह तो आत्मपूर्णता की स्थिति है, उसमें तरतमता या वैविध्य नही है। सभी मुक्त आत्माएँ समान हैं, उनमें कोई तरतमता नहीं है, छोटी-बड़ी नहीं हैं, ऊँच-नीच नहीं हैं, स्वामी-सेवक भाव नहीं हैं। वैविध्य तो संसार दशा में है, मुक्ति में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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