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________________ जैन दर्शन में मोक्ष की अवधारणा : ५९ सकते हैं, उसे कह नहीं सकते (लक्ष्यते न तु उच्चयते)। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पंचम अध्याय (१/५/६/१७१) में इसलिए कहा गया है कि "उस परमात्म पद का निर्वचन करने में शब्द समर्थ नहीं हैं, सारे स्वर वहाँ से लौट आते हैं, तर्क की भी वहाँ कोई गति नहीं है, मति (बुद्धि) उसे पकड़ पाने में असमर्थ है, उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् कोई भी शब्द उसे वाच्य बनाने में समर्थ नहीं है, ऐसी कोई उपमा भी नहीं है जिसके माध्यम से उसे बताया जा सकता है।" उसके स्वरूप के निर्वचन में वाणी की असमर्थता को स्वीकार करनी ही होती है, क्योंकि अनुभूति मात्र अनुभूति है उसे अभिव्यक्ति देना सम्भव नहीं है। इसलिए जब उसके वर्णन का प्रश्न आया तो प्राय: शास्त्रों ने निषेध मुख से इतना ही कहा कि मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्मजन्य उपाधियों का भी अभाव होता है; अत: मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाला भी नहीं है। वह सुगन्ध और दुर्गन्ध वाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण, कटुक, खट्टा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरू, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रुक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है (आचारांग १/५/६/१७१)। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, "मोक्षदशा में न सुख है, न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है, न वहाँ इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है, न वहाँ चिन्ता है, न आर्त और रौद्र विचार ही हैं। वहाँ तो शुभ और अशुभ विचारों का भी अभाव है (नियमसार १७८-१७९)।" मोक्षावस्था तो सर्व संकल्पों का अभाव है। वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है, वह पक्षातिक्रान्त है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन भी उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है। उपनिषदों में इसी लिये यह कहा गया है कि वह तर्क, बुद्धि ओर मन का विषय नहीं है (तैत्तिरीय २/९, मुण्डक ३/१/८), क्योंकि ये सभी विकल्पात्मक हैं जबकि वह तो निर्विकल्प है, निर्विकल्प को विकल्पों का विषय कैसे बनाया जा सकता है? भाषा भी अस्ति और नास्ति के विकल्पों से सीमित है अत: मोक्ष का कोई भी निर्वचन सम्भव नहीं है। निर्वाण की अभावात्मक व्याख्या के सम्बन्ध में उदान (८/१०) में निम्न बुद्धवचन हैं- "लोहे के घन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं वे तुरन्त ही बुझ जाती हैं। कहाँ गईं कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण प्राप्त पुरुष की गति का कोई भी पता नहीं लगा सकता।" फिर भी इन निषेधमूलक विवरणों से यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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