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________________ प्राकृत एवं अपभ्रंश जैन साहित्य में कृष्ण : १०७ वेदना को सहन करते हैं तथा अपने मन में किसी प्रकार का द्वेष या आक्रोश नहीं लाते और उसी दिन मुक्ति को प्राप्त करते हैं। श्रीकृष्ण अपने लघुभ्राता के दर्शन के लिए अरिष्टनेमि के पास जाते हैं और उनसे सारे घटना चक्र को जानने की अपेक्षा करते हैं। अरिष्टनेमि उन्हें केवल इतना ही बताते हैं कि जिस प्रकार तुमने एक वृद्ध को सहयोग देकर दु:ख मुक्त किया था उसी प्रकार तुम्हारे भाई को भी एक व्यक्ति ने सहयोग देकर संसार चक्र से मुक्त कर दिया है। इसी कथा प्रसंग में अवान्तर रूप से श्रीकृष्ण की सहयोग भावना का निम्न प्रसंग हमें मिलता है श्रीकृष्ण अपने लघु भ्राता गजसुकुमाल के साथ जब अरिष्टनेमि के वन्दन को जाते हैं, तो उन्हें मार्ग में ईंटों का एक बहुत बड़ा ढेर दिखाई पड़ता है। वे देखते हैं कि एक वृद्ध जो अत्यन्त जर्जर और क्षीणकाय है उस विशालकाय ढेर में से एक-एक ईंट उठाकर घर के अन्दर रख रहा है। श्रीकृष्ण उसकी उस पीड़ा को देखकर हाथी पर बैठे हुए ही एक ईंट उठाते हैं और उसके घर में डाल देते हैं। श्रीकृष्ण के साथ आनेवाला समुदाय और सैन्यबल भी उनका अनुसरण करता है और इसप्रकार अल्पसमय में ही वह विशालकाय ईंटों की राशि वृद्ध के घर पहुँच जाती है। यहां हम देखते हैं कि अन्तकृत्दशा में वर्णित कथा प्रसंग में अनियस आदि देवकी के छह पुत्रों की सुलसा के मृत पुत्रों के साथ परिवर्तन की घटना गजसुकुमाल के जन्म और दीक्षा की कथा तथा श्रीकृष्ण के द्वारा उस वृद्ध को सहयोग देने की अवान्तर कथा, ये सभी उल्लेख जैन परम्परा के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं पाये जाते। हिन्दू परम्परा में देवकी श्रीकृष्ण से पूर्व होने वाले पुत्रपुत्रियों के जो उल्लेख हैं वे इस कथा से एकदम भिन्न हैं। फिर भी दोनों में इतना साम्य अवश्य है कि दोनों परम्पराओं में कंस के कोप से बचने के लिए देवकी पुत्रों का स्थानान्तरण हुआ है। श्री कृष्ण के पूर्वज वसुदेवहिण्डी में श्रीकृष्ण के पूर्व पूर्वजों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि हरिवंश में सोरि और वीर नामक दो भाई उत्पन्न हुए। सोरि ने अपनी राजधानी सोरिकुल में स्थापित की और वीर ने सौवीर में। ये दोनों एक दूसरे के प्रति अत्यन्त अनुराग रखते थे और कोष, कोष्ठागार एवं राज्य आदि का विभाजन किये बिना ही राज्यश्री का उपभोग करते थे। सोरि के पुत्र अन्धकवृष्णि और उनकी पत्नी से समुद्रविजय आदि दस पुत्र और कुन्ती एवं माद्री नामक दो कन्यायें उत्पन्न हुईं। दूसरी ओर वीर का पुत्र भोगवृष्णि हुआ। उसका पुत्र उग्रसेन और उग्रसेन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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