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________________ ९८ ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृत्दशा, प्रश्नव्याकरण आदि आगमों में कृष्ण सम्बन्धी उल्लेख हैं। आगम साहित्य में कृष्ण के चरित्र को राम के चरित्र के अपेक्षा जो प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है, उसका कारण केवल यही नहीं है कि वे जैन परम्परा के २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के चचेरे भाई हैं, अपितु उनका वासुदेव (अर्द्धचक्री) होना भी है। जैन परम्परा में राम एवं कृष्ण दोनों की गणना शलाका पुरुषों में की गई है, किन्तु जहां राम को बलदेव के रूप में स्वीकृत किया गया है वहीं कृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकृत किया गया है। बलदेव के अपेक्षा वासुदेव का पद निश्चय ही अधिक महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है, क्योंकि वासुदेव शासनसूत्र का स्वयं नियामक होता है। जबकि बलदेव मात्र उसका सहयोगी । साथ ही जैन परम्परा में कृष्ण को भविष्य में होने वाले १२वें तीर्थकर के रूप में भी स्वीकार किया गया है और यह सत्य है कि जैन परम्परा में तीर्थकर ही सर्वोच्च व्यक्तित्व है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि राम के अपेक्षा कृष्ण ने जैनों को अधिक प्रभावित किया है। जहां तक कृष्ण के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विस्तृत एवं स्वतंत्र ग्रन्थ का प्रश्न है संस्कृत एवं अपभ्रंश में हरिवंश पुराण के रूप में सर्वप्रथम ऐसे स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे गये। किन्तु आगे चलकर रिट्ठनेमिचरिउ, नेमिनाहचरिउ, पदुम्नचरिउ, कण्हचरित आदि अनेक ग्रन्थ लिखे गये जिनमें कृष्ण-कथा को प्रमुख स्थान मिला है। जैन आगम साहित्य में प्राचीनतम स्तर के अर्थात् ईस्वी पूर्व के ग्रन्थों यथा- आचारांग, ऋषिभाषित, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक में कृष्ण के जीवनवृत्त का हमें कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता। ऋषिभाषित में वारिषेण कृष्ण के उपदेशों का विवरण है, किन्तु उनका देवकी पुत्र कृष्ण से सम्बन्ध जोड़ पाना कठिन है। मात्र उत्तराध्ययन सूत्र के रथनेमि (रहनेमिज्ज) नामक अध्ययन में राजीमति और रथनेमि के कथा प्रसंग में शौरीपुर नगर के वसुदेव नामक राजा की रोहिणी और देवकी नाम की रानियों के पुत्र के रूप में क्रमश: राम और केशव (कृष्ण) का उल्लेख है। इस कथा प्रसंग में केशव के द्वारा राजीमति का अरिष्टनेमि से विवाह निश्चित करने एवं अरिष्टनेमि के प्रव्रजित होने पर उन्हें शुभकामना प्रेषित करने एवं वन्दन करने का भी उल्लेख है। सम्भवत: यही एक ऐसा साहित्यिक प्राचीनतम आधार है, जहां कृष्ण जैन परम्परा में सर्वप्रथम उल्लिखित होते हैं। यद्यपि द्वितीय स्तर के आगम ग्रन्थों में अर्थात् ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी में निर्मित आगम ग्रन्थों में कृष्णकथा का धीरे-धीरे विस्तार होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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