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जैन एवं बौद्ध श्रमण संघ में विधि शास्त्र का विकास : एक परिचय : ४७
प्रेरणा देते हैं और स्वयं भी नैतिक चरम (मोक्षावस्था) की स्थिति पर पहुँचते हैं। इस प्रकार तत्कालीन समाज के लिए श्रमण संघ का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। निस्सन्देह, जैन एवं बौद्ध श्रमण संघ की स्थापना एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी । दोनों परम्पराओं के गहन अध्ययन से पता चलता है कि श्रमणों के लिए बनाए गए विधि / नियम दोनों धर्मों के विकास में कहाँ तक सहायक रहे हैं।
जैन एवं बौद्ध धर्मों में आचार सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों की रचना की गयी है। बौद्ध ग्रन्थ यथा- महावग्ग, चुल्लवग्ग तथा निकाय साहित्य में यत्र-तत्र ही भिक्षुभिक्षुणियों के आचार या विधि नियमों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। जैन ग्रन्थों जैसे आचारांग, स्थानांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प सूत्र, व्यवहारसूत्र, निशीथसूत्र तथा इनके व्याख्या एवं टीका ग्रन्थों में जैन भिक्षुभिक्षुणियों के विधि से सम्बन्धित नियम बिखरे हुए प्राप्त होत हैं।
श्रमण परम्परा से सम्बन्धित आधुनिक काल में भी अनेक पुस्तकें प्रकाश में आयी हैं यथा 'Contribution to the History of Brahmanical Asceticism' (H.D. Sharma), Early Buddhist Monachism (Sukumar Dutta), Early Monastic Buddhism (Nalinaksha Dutta), History of Jain Monachism (S.B. Dev), Early Buddhist Jurisprudence (D.N. Bhagavat), Jaina Monastic Jurisprudence (S. B. Dev) आदि पुस्तकें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें श्रमण परम्परा के आचार सम्बन्धी नियमों का एक सम्यक् चित्र उपस्थित होता है । सन्दर्भ :
१. दशवैकालिक, ३/२, ६/४८-४९, ८/२३, १०/४/०४.
२. सूत्रकृतांक, १, ९, १४.
३. बृहत्कल्पसूत्र, १ / ३८.
४. मूलाचार, ९ / १९.
५. मूलाचार, १०/५८-६०.
6. A List of Brahmi Inscription, 93.
७. "रूक्खमूलेसेनासनं " महावग्ग, पृ० - ५५.
८. महावंस, १९/८२-८३.
९. उत्तराध्ययन, २६ वाँ अध्याय.
१०. बृहत्कल्पभाष्य, भाग चतुर्थ, ४१२९-४६.
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