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________________ आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन : २१ पाना कठिन ही प्रतीत होता है। भट्टारक प्रथा, यक्ष-यक्षी-पूजन, पंचामृताभिषेक, दिगम्बर साध्वियों का पद आदि परम्परायें इसी कोटि में आती हैं। हरिवंशपुराण आदि में इनका उल्लेख और वर्णन है। ५. सामायिक और प्रतिक्रमण : हमने इन प्रक्रियाओं में मूल प्राकृत पाठों के साथ उत्तरवर्ती अनेक संस्कृत के पाठ भी स्वीकार किये। ६. भट्टारकों की परम्परा : हमने निग्रंथ संस्था के अंतर्गत अपने संरक्षण और धर्म परिक्षण के लिये तेरापंथ और बीसपंथ की परम्परा स्वीकृत की और शिथिलाचार के साथ मुनि-परम्परा को भट्टारक के रूप में परिवर्तित होता हुआ देखा है। उनकी कोटि पर आज किंचित् प्रश्न उमये जा रहे हैं। यह ऐतिहासिक युगों की विवशताओं में हमें स्वीकृत करना पड़ा। उनका उल्लेख आगमों में नहीं है,पर इनके अस्तित्व और प्रतिष्ठा से कौन अपरिचित है? ७. बाइस अभक्ष्यों को धारणा : आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया है कि भोगभूमियों एवं कुलकरों के युग में लोग प्राकृतिक कंद, मूल, पुष्प और फल ही खाते थे। क्रमश: अग्नि और कृषि आई। इससे विभिन्न प्रकार के बीजान्न एवं वनस्पति पकाकर खाये जाने लगे। उत्तरवर्ती काल में जब हिंसा-अहिंसा का विवेक विकसित हुआ, तो आचारांग, मलाचार तथा बाद में अनेक ग्रंथों में कुछ पदार्थों की अभक्ष्यता निरूपित की गई। इन अभक्ष्यों की संख्या का उल्लेख दसवीं सदी तक के ग्रंथों में नहीं मिलता। आचारांग - २ पृष्ठ १२ (आचारांगचूर्णि) में अभक्ष्यता के ग्यारह आधार बताये हैं जिनसे हिंसाअहिंसा विवेक की तीक्ष्णता प्रकट होती है। यह कितनी व्यावहारिक है, यह बात अलग है। इसके विपर्यास, रत्नकरंड-श्रावकाचार आदि दिगम्बर ग्रंथों में यह अधिक व्यापक है। इनमें(१) त्रसजीव घात(२)प्रमादोत्पादकता (३)स्वास्थ्य हानि (४)लोक विरुद्धता (५)अल्पफल बहु विघात एवं(६)अपक्वता के आधार बताये गये हैं। भगवती १८.१० में बताया है कि सरसों, उड़द और कुलत्थ (और अन्य अनेक वनस्पति भी) तभी भक्ष्य होते हैं जब वे शस्त्र-परिणत, एषणीय, याचित (साधु के लिये) और लब्ध हों। वहां वनस्पतियों के लिये शस्त्र-परिणमन की विधियां भी बताई हैं। गृहस्थ भी प्रायः इनको इसी रूप में खाते होंगे। इससे लगता है कि किसी समय अग्नि-पक्वता मात्र भक्ष्यता का आधार नहीं रही होगी। इस प्रकार अभक्ष्यता की धारणा तो प्राचीन है, पर उनकी निश्चित संख्या की धारणा उत्तरवर्ती है। अत: यह स्पष्ट है कि अभक्ष्य पदार्थों की कोटि और संख्या समय-समय पर परिवर्तित होती रही है। इसी प्रकार भक्ष्य पदार्थों की कोटियां ९-१८ के बीच परिवर्तित हुई हैं। ८. पुरुषों और महिलाओं की कलायें : यद्यपि पुरुषों की ७२ कलायें मानी जाती हैं, पर इनके नाम भिन्न-भिन्न ग्रंथों में पृथक-पृथक हैं। ये समयानुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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