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________________ २० : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४ वायुकाय को त्रस कहा गया है। यह दिगम्बर तत्त्वार्थसूत्र से सम्मत नहीं है। संभवतः गतिन्त्रसत्व यहां अभीप्सित हो लब्धिसत्व नहीं। १८. उमास्वामि के पूर्व 'प्रमाण' की चर्चा विलुप्त-सी थी, उमास्वाति ने इसे 'ज्ञानं प्रमाणं' से प्रारंभ किया। १९. हमने अर्धफालक और यापनीय संप्रदायों को अपने गर्भ में समाहित किया है जिनके अनेक सिद्धांत मूल परम्परा से मेल नहीं खाते। ये सैद्धांतिक मान्यताओं में परिवर्तन के कुछ निरूपण हैं। गहन अध्ययन करने पर ऐसे ही अनेक परिवर्तन और प्राप्त हो सकते हैं। इन मान्यताओं के समान आचारगत मान्यताओं में भी परिवर्धन हुआ है। इनके कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं। आचारगत मान्यतायें : १. साधुओं के मूल गुण : यह सुज्ञात है कि वर्तमान ‘णमोकार मंत्र' क्रमश: एक पदी, द्विपदी, त्रिपदी के माध्यम से पंचपदी में विकसित हुआ है। त्रिपदी में अरिहंत, सिद्ध एवं साधुपद ही था। संभवत: अन्य परम्पराओं के प्रभाव से उत्तरवर्ती काल में इसमें आचार्य और उपाध्याय पद जुड़े हैं। ये साधु के ही गुणकृत कोटि के भेद हैं। प्रारंभ में मूलगुण शब्द से साधुओं के ही मूलगुणों का अर्थ लिया जाता था। श्रावकों के मूलगुणों की धारणा का विकास तो उत्तरवर्ती है। साधुओं के मूलगुणों की संख्या १८, २५, २७, २८ एवं ३६ के बीच पाई गई है जो समवाओं से लेकर अनगार-धर्मामृत के समय के बीच है। २. श्रावक के आठ मूल गुण : कुछ विद्वान् समंतभद्र की मूलगुणी गाथा को प्रक्षिप्त मानते हैं। फलतः उनके १२ व्रतों का विवरण तो आगमों में मिलता है, पर उनके मूलगुणों का वर्णन संभवत: दसवीं सदी से ही प्रारंभ हुआ है। इनमें भी आशाधर ने ३ परम्परायें बताई हैं। इनमें परिवर्धन एवं विस्तारण-दोनों प्रक्रियायें समाहित हुई हैं। ३. साधुओं के स्वाध्याय का समय : यह एक बार में ४ घड़ी से लेकर .११ घड़ी तक का होता है। ४. लौकिक विधि की प्रमाणता : जैन इतिहास के विकट क्षणों में जिनसेन और सोमदेव ने जैनों के परिरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। हमने उनके 'सर्वमेवहि जैनानां, प्रमाणंलौकिकी विधिः। यत्रसम्यवत्वहानिर्न, यत्रनव्रतदूषण।। के श्लोकगत उपदेश को स्वीकृत किया। फलस्वरूप अनेक नई परंपरायें जैनों में आईं। इनमें से कुछ पर आज प्रश्न किये जा रहे हैं। इनका उद्भव शास्त्रीय या आगमिक आधार पर न भी हुआ तो, पर ऐतिहासिक कारणों से तो हुआ ही है। इनसे निवर्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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