________________
चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक की विषय वस्तु का मूल्यांकन :
७
भगवान् द्वारा उपदिष्ट अति विस्तृत ज्ञानको समग्रतया नहीं जानतेहुये भी चारित्रसम्पन्न हैं। आगे कहा गया है, जो ज्ञान है, वही क्रिया या आचरण है, जोआचरण है, वही जिनोपदेश का सार है और वहीं पर तत्त्व है।१७ यहां ज्ञान और क्रिया के बल पर विशेष बल दिया गया है। ज्ञान और क्रियाको एक दूसरे सेअभिन्न बताया गया है, जोज्ञान आचरणकाविषय नहीं बनता, वह वास्तव में निरर्थक है।ज्ञान एवंसदाचार का समन्वय स्थापित किया गयाहै। ज्ञान ही मुक्ति का साधन है क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति संसार में परिभ्रमण नहीं करता है।१८
चारित्र गण नामक छठे द्वार में उन पुरुषों को प्रशंसनीय बताया है, जो गहस्थ रूपी बंधन से पूर्णत: मुक्त होकर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट मुनि धर्म के आचरण हेतु प्रवृत्त होते हैं। जो पुरुष उद्यमी होते हैं वे क्रोध, मान, माया, लोभ, अरति और जुगुप्सा को समाप्त कर देते हैं। वे परम सुख को खोजते हैं। चारित्र शुद्धि के बारे में बताते हैं। पांच समिति एवं तीन गुप्तियों में जिनकी मति है, जो राग द्वेष नहीं करता, उसी का चरित्र शुद्ध होता है।१९
इस प्रकार सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की समन्वित साधना को ही स्वीकार किया गया है। उनमें किसी एक के अभाव से मोक्ष या साधना की प्राप्ति संभव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है, दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं है, उसका सम्यक् आचरण नहीं होता और सम्यक् आचरण के बिना आसक्ति से मुक्त नहीं हो सकता तथा जो आसक्ति से मुक्त नहीं उसका मोक्ष नहीं होता है।२० सम्यक् दृष्टि से ही ज्ञान, आचरण और सदाचार सफल होते हैं। अत: सम्यक् दर्शन को ही प्राथमिकता दी गयी है।
सातवें अंतिम द्वार में मरण गुण पर ध्यान दिया गया है। मरण गुण में समाधिमरण की उत्कृष्टता का ज्ञान कराते हैं। वे कहते हैं कि विषय सुखों का निवारण करने वाली पुरुषार्थी आत्मा मृत्यु के समय में समाधिमरण की गवेषण करने वाली होती है। समाधिमरण किसका होता है, इस विषय में कहा गया है सम्यक् बुद्धि को प्राप्त अंतिम समय में साधना में विद्यमान पाप कर्म की आलोचना, निन्दा और गर्दा करने वाले व्यक्ति का मरण ही शुद्ध होता है। आगे कहते हैं कि वे साधु धन्य हैं, जो सदैव राग रहित जिन वचनों में लीन तथा कषायों से रहित हैं एवं आसक्ति एवं ममता रहित होकर निरन्तर सद्गुणों में रमण करने वाले होते हैं। आगे की गाथाओं में आसक्ति त्याग पर बल दिया गया है क्योंकि आसक्ति ही बंधन में डालती है जिसके कारण जीव सांसारिक मोह-माया में फंसता है। परिणामस्वरूप उसके बंधन दृढ़ हो जाते हैं। जैसे व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं में मोह रखता है और हेय वस्तुओं को उपादेय मान लेता है। परिणामस्वरूप जन्म-मरण के चक्र में पड़ जाता है। मृत्यु के समय कोई वस्तु उसके साथ नहीं जाती और न उसे बचाने में सहायक हो सकती है। इसलिये जैन मतावलम्बी के लिये राग द्वेषों से मुक्त होकर समाधिमरण की बात कही गई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org