SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ तालिका - ३ सागरचन्द्रसूरि शाखा के पं० दयारत्नगणि उपा० शिवदेव उपा० राजचन्द्र वाचक जयनिधान कमलसिंह वाचकं कमलरत्न (वि०सं० १७२१ में अभियानचिन्ता मणिनाममाला के प्रतिलिपिकार) दानचन्द्र ज्ञानचन्द्रमुनि (इन्ही के पठनार्थ इनके गुरु ने वि० सं० १७२१ में अभिधानचिन्तामणिनाममाला पं० नयनानन्द को प्रतिलिपिकी) (वि० सं० १७३७ में शब्दशोभा व्याकरण वृत्तिसह के प्रतिलिपिकार) वि०सं० १७०१ में वीरांगदचौपाई के प्रतिलिपिकार समयमूर्तिगणि भी स्वयं को सागरचन्द्रसूरिशाखा से ही सम्बद्ध बतलाते हैं। उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति२° में उन्होंने स्वयं को ज्ञानप्रमोदगणि का प्रशिष्य और गुणनन्दनगणि का शिष्य बतलाया है : सागरचन्द्रसूरिशाखा के ज्ञानप्रमोदगणि (वाग्भटालंकारटीका के कर्ता) गुणनन्दनगणि (मंगलकलशरास वि० सं० १६६५ | के कर्ता) समयमूर्तिगणि (वि०सं० १७०१/ई०स० १६४५ में वीरांगदचौपाई के प्रतिलिपिकार) वाग्भटालंकारटीका के रचनाकार के रूप में खरतरगच्छीय मुनि ज्ञानप्रमोद का नाम मिलता है।२१ चूंकि मंगलकलशरास२२ के रचनाकार गुणनन्दन गणि ने भी अपने गुरु का नाम ज्ञानप्रमोद ही बतलाया है अत: वीरांगदचौपाई की वि० सं० १७०१ में लिखी गयी प्रशस्तिगत गुर्वावली में जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं, प्रतिलिपिकार के प्रगुरु ज्ञानप्रमोदगणि और वाग्भटालंकारटीका के रचनाकार ज्ञानप्रमोद को समसामयिकता, नामसाम्य के आधार पर एक ही व्यक्ति माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy