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________________ बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा - एक तुलनात्मक अध्ययन : ३ अगले सूत्र में उन्हें प्रमाण के रूप में उल्लेखित किया है, साथ ही प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों का भी उल्लेख किया है फिर भी उमास्वाति को जैन न्याय के आद्यप्रणेता के रूप में स्वीकार करना संभव नहीं है, क्योंकि उनके तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में इन दो सूत्रों के अतिरिक्त प्रमाण संबंधी कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं है। उनके पश्चात् सिद्धसेन दिवाकर ने यद्यपि जैन प्रमाणव्यवस्था के संबंध में एक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना तो की, किंतु उन्होंने प्रमाणमीमांसा संबंधी बौद्ध एवं अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा का कोई प्रयत्न नहीं किया। जैन परम्परा में बौद्ध प्रमाणमीमांसा की समीक्षा यदि सर्वप्रथम किसी ने की है, तो वे द्वादशारनयचक्र के प्रणेता मल्लवादी (लगभग पाँचवी शती) हैं। मल्लवादी ने दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय से अनेक संदर्भो को उद्धत करके उनकी समीक्षा की है। मल्लवादी दिङ्नाग से परवर्ती और धर्मकीर्ति से पूर्ववर्ती हैं। बौद्ध विद्वानों ने दिङ्नाग का काल ईसा की पांचवी शती माना है। किन्तु द्वादशारनयचक्र की प्रशस्ति से मल्लवादी का काल विक्रम सं०४१४ तदनुसार ई० सन् ३५७ माना है। इस दृष्टि से दिङ्नाग को भी ईसा की चौथी शती के उत्तरार्द्ध से पांचवी शती के पूर्वार्द्ध का मानना होगा। जैन परम्परा, बौद्ध प्रमाणशास्त्र से यदि परिचित हुई है तो वह प्रथमतः दिङ्नाग और फिर धर्मकीर्ति से ही विशेष रूप से परिचित प्रतीत होती है, क्योंकि जैन आचार्यों ने बौद्ध प्रमाण शास्त्र की समीक्षा में इन्हीं के ग्रन्थों को मुख्य आधार बनाया है, यद्यपि धर्मोत्तर, अर्चट, शान्तरक्षित और कमलशील के भी संदर्भ जैन ग्रंथों में मिलते हैं। तिब्बती परम्परा के अनुसार दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के अतिरिक्त प्रमाणशास्त्र पर उनकी जो दूसरी प्रमुख कृति है, वह न्यायप्रवेश है। यद्यपि कुछ विद्वानों ने उसके कर्ता दिङ्नाग के शिष्य शंकरस्वामी को माना है। बौद्ध प्रमाणशास्त्र में न्यायप्रवेश ही एक ऐसा ग्रंथ है, जिस पर जैन आचार्यों ने टीकाएं रची। आचार्य हरिभद्रसूरि ने (लगभग आठवीं शताब्दी में) दिङ्नाग के न्यायप्रवेश पर वृत्ति लिखी, जो उपलब्ध है। आगे चलकर हरिभद्र की इस न्यायप्रवेशवृत्ति पर पार्श्वदेवगणि ने पंजिका की रचना की। यद्यपि ये दोनों टीका ग्रंथ जैन परम्परा के आचार्यों की रचनायें हैं, किंतु ये समीक्षात्मक न होकर विवेचनात्मक ही हैं। समीक्षा की दृष्टि से दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के पश्चात् जैन आचार्यों ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक को ही अधिक उद्धृत किया है। ज्ञातव्य है कि प्रमाणवार्तिक दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय की ही टीका है। फिर भी जैन आचार्यों ने अपनी बौद्ध प्रमाणशास्त्र की समीक्षा में इसको ही प्रमुख आधार बनाया है। धर्मकीर्ति के दूसरे दो ग्रंथ जो जैन आचार्यों की समीक्षा के विषय रहे हैं वे हैं प्रमाणविनिश्चय और संबंधपरीक्षा। प्रमाणविनिश्चय वस्तुत: उनके प्रमाणवार्तिक का ही संक्षिप्त रूप है और इसके आधे से अधिक श्लोक प्रमाणवार्तिक से ही ग्रहण किए गए हैं। धर्मकीर्ति की दूसरी कृति संबंधपरीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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