SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय श्रमण जुलाई-सितम्बर २००४ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है । पूर्व की भांति इस अंक में भी जैन दर्शन, साहित्य, आचार एवं इतिहास से सम्बद्ध आलेखों को स्थान दिया गया है। हमारा प्रयास यही रहता है कि श्रमण का प्रत्येक अंक पिछले अंकों की तुलना में हर दृष्टि से बेहतर हो और उसमें प्रकाशित हो रहे सभी आलेख शुद्ध रूप में मुद्रित हों। इस अंक के साथ भी हम अपने सम्माननीय पाठकों को जैन कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखने वाली प्राकृत भाषा में रचित कृति सुरसुंदरीचरिअं के द्वितीय परिच्छेद का एक अंश भेंट कर रहे हैं जो मुनिश्री विश्रुतयशविजयजी म०सा० द्वारा की गयी संस्कृत छाया, गुजराती अर्थ और हिन्दी अनुवाद से युक्त है। यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हमें पूज्य आचार्य विजय राजयशसूरिजी म०सा० के सौजन्य से प्राप्त हुआ है जिसके लिये हम उनके आभारी हैं। सुधी पाठकों से निवेदन है कि वे अपने अमूल्य विचारों/ आलोचनाओं से हमें अवगत कराने की कृपा करें ताकि आगामी अंकों में उसे सुधारा जा सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only सम्पादक www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy