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________________ ३२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ का समावेश विशेषावश्यक में किया है। इसमें कुल ३६०३ गाथाएं हैं। वस्तुत: यह भाष्य केवल प्रथम अध्ययन ‘सामायिक' पर है। प्रस्तुत भाष्य में जैनागम साहित्य में वर्णित समस्त ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, आचार, नीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्मवाद पर विस्तृत चिन्तन हुआ है। नियुक्ति व भाष्य की रचना के पश्चात् जैन मनीषियों ने शुद्ध प्राकृत और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में जिन गद्यात्मक व्याख्याओं की रचना की, वस्तुत: वही चूर्णि साहित्य के रूप में विश्रुत है। आवश्यकचूर्णि के कर्ता जिनदासगणि महत्तर (वि०सं०६५०-७५०) हैं। आवश्यकचूर्णि, आवश्यकनियुक्ति के अनुरूप रचित है, तथापि भाष्य गाथाओं का भी यत्र-तत्र प्रयोग हुआ है। यद्यपि इसकी प्रवाहमय भाषा मुख्यतः प्राकृत है। इसमें ऐतिहासिक कथाओं की प्रचूरता है। निह्नवों के निरूपण के पश्चात् द्रव्य, पर्याय और नय-दृष्टि से सामायिक का प्रतिपादन हुआ है। चतुर्विंशतिस्तव में लोक, उद्योत, धर्म-तीर्थंकर प्रभृति विषयों पर निक्षेप-पद्धति से चिन्तन हुआ है। वंदन अध्ययन में वंदन के योग्य श्रमण के स्वरूप का प्रतिपादन करते हए चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजा व विनयकर्म को दृष्टान्तों के माध्यम से व्याख्यापित किया गया है। प्रतिक्रमण अध्ययन को प्रतिक्रामक, प्रतिक्रमण एवं प्रतिक्रान्तव्य इन तीन दृष्टियों से परिभाषित किया गया है। तत्पश्चात् कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान का निरूपण हुआ है। इसमें विभिन्न पौराणिक व ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन उत्कीर्ण हैं, जिनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व है। मूलागम, नियुक्ति और भाष्य साहित्य प्राकृत में रचित हैं, जबकि चूर्णि साहित्य में प्रधानरूप से प्राकृत भाषा का प्रयोग हुआ है और साथ ही गौण रूप से संस्कृत भाषा का भी। नियुक्ति में आगमों के शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या विवेचित है, जबकि भाष्य साहित्य में विस्तार से आगमों के शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन हुआ है और चूर्णि साहित्य में निगूढ़ भावों को लोक-कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। तत्पश्चात् संस्कृत भाषा में टीका साहित्य के अन्तर्गत आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण हुआहै। टीकाकार ने प्राचीन नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य का अपनी टीका में प्रयोग किया है। इसके अन्तर्गत सामाजिक, राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का सम्यकरूपेण विवेचन हआ है। टीकाकार जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणनेविशेषावश्यकभाष्य पर स्वोपज्ञवृत्ति रची, लेकिन इसे अपने जीवन में पूर्ण नहीं कर सके। प्रस्तुत टीका उनके पश्चात्कोट्याचार्य (८वीं शती) ने पूर्ण की। संस्कृत टीकाकार आचार्य हरिभद्र (वि०सं० ७७५ से ८२७) ने नियुक्ति के अनुसार सामायिक प्रभृति की तेइस द्वारों से विवेचना की है। वस्तुत: नियुक्ति व चूर्णि में निहित जिन-जिन विषयों का संक्षेप में निरूपण है उन्हीं का शिष्यहिता नामक वृत्ति में विस्तार है। इसका ग्रन्थमान २२००० श्लोक प्रमाण है। कोट्याचार्य ने आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अपूर्ण स्वोपज्ञभाष्य को पूर्ण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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